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किया गया है व प्रत्येक के साथ 'इति वा' का भी प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से उसमें लाघव नहीं रह सका है। ___ इसका अभिप्राय यह नहीं है कि षटण्डागम सूत्र ग्रन्थ नहीं है, उसे सूत्रग्रन्थ ही माना गया है। पर वह "सुत्तं गणहरकहियं” इत्यादि सूत्रलक्षण' के आधार पर सूत्रग्रन्थ है, न कि "अल्पाक्षरमसंदिग्धं" इत्यादि सूत्र लक्षण' के आधार पर।
प्रकृत औदयिकभाव के ष०ख० में जहाँ २४ भेद कहे गये हैं वहाँ त० सू० में वे २१ ही निर्दिष्ट किये गये हैं। इसका कारण यह है कि त०सू० की अपेक्षा ष०ख० में राग, द्वेष, मोह और अविरति इन चार अतिरिक्त भावों को ग्रहण किया गया है तथा त० सू० में निर्दिष्ट असिद्धत्व को वहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। . इनमें राग और द्वेष ये कषायस्वरूप ही हैं, इसी कारण त० सू० में कषाय के अन्तर्गत होने से उन्हें अलग से नहीं ग्रहण किया गया है ।
'मोह' से धवलाकार ने पाँच प्रकार के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व को ग्रहण किया है । इस प्रकार के मोह को मिथ्यात्व के अन्तर्गत ही समझना चाहिए। इसीलिए सम्भवतः त० सू० में अलग से उसे नहीं ग्रहण किया गया है।
ष० ख० में उपर्युक्त भावों के अन्तर्गत असंयत भी है और अविरति भी है। सामान्य से इन दोनों में कुछ और भेद नहीं है। इसीलिए त०सू० में अविरति को असंयत से पृथक् रूप में नहीं ग्रहण किया गया है।
इस प्रसंग में वहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि संयम और विरति में क्या भेद है। इसके उत्तर में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि समितियों से संहित महाव्रतों और अणुव्रतों को संयम तथा उनसे रहित उन महाव्रतों और अणुव्रतों को विरति कहा जाता है।
ष०ख० से त०सू० में विशेषता यह रही है वहाँ इन भावों में असिद्धत्व को भी सम्मिलित किया गया है, जिसे ष० ख० में नहीं ग्रहण किया गया है। फिर भी ष०ख० के उस सूत्र में जो अन्त में 'एवमादिया' कहा गया है, उससे असिद्धत्व का भी ग्रहण वहाँ हो जाता है।
तसू० में जो असिद्धत्व को विशेष रूप से ग्रहण किया गया है, उसे संसार व मोक्ष की प्रधानता होने के कारण ग्रहण किया गया है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट उन २४ और २१ भेदों में कुछ विरोध नहीं रहता है। __यहाँ उपर्युक्त दो उदाहरण दिये गये हैं। वैसे तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्र प्रस्तुत षट्खण्डागम से प्रभावित हैं। इसे ग्रन्थारम्भ में 'षट्खण्डागम व तत्त्वार्थसूत्र' शीर्षक में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है।
इससे प्रायः यह निश्चित है गृद्धपिच्छाचार्य षटखण्डागमकार आ० पुष्पदन्त-भूतबलि (प्रायः प्रथम शताब्दि) के पश्चात् हुए हैं।
(२) पंचास्तिकायादि-जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रों पर षट्खण्डागम का प्रभाव रहा है, उसी प्रकार उसके कुछ सूत्रों पर आ० कुन्दकुन्द-विरचित पंचास्तिकाय और
१. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ३८१ २. वही, पु० ६, पृ० २५६, श्लोक ११७ ३. इस सबके लिए सूत्र १५ की धवला टीका (पु० १४, पृ० ११-१२) द्रष्टव्य है।
६६० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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