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समय- विचार
उनके प्रकृत तत्त्वार्थसूत्र पर आ० पुष्पदन्त भूतबलि विरचित षट्खण्डागम, कुन्दकुन्दाचार्यविरचित पंचास्तिकाय व प्रवचनसार आदि का तथा वट्टकेराचार्य विरचित मूलाचार का प्रभाव परिलक्षित होता है । इससे इन आचार्यों के पश्चात् ही उनका होना सम्भव है । यथा(१) षट्खण्डागम – तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थाधिगम के हेतुभूत प्रमाण- नय और निर्देशादि का उल्लेख करने के पश्चात् अन्य सदादि अनुयोगद्वारों का प्ररूपक यह सूत्र उपलब्ध होता है"सत्-संख्या क्षेत्र - स्पर्शन - कालान्तर भावाल्पबहुत्वैश्च ।" - त०सू० १-८ यह सूत्र षट्खण्डागम के इस सूत्र पर आधारित है—
"संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावागमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि । " -- सूत्र १,१,७ ( पु० १, पृ० १५५ )
ष० ख० में जहाँ सूत्रोक्त आठ अनुयोगद्वारों में प्रथम अनुयोगद्वार का उल्लेख 'सत्प्ररूपणा' के नाम से किया गया है वहाँ त०सू० में उसका उल्लेख 'सत्' के नाम से कर दिया गया है । इसी प्रकार दूसरे अनुयोगद्वार को जहाँ ष०ख० में 'द्रव्यप्रमाणानुगम' कहा गया है वहाँ त०सू० में उसे 'संख्या' कहा गया है, अर्थभेद कुछ नहीं है । ष०ख० में प्रत्येक अनुयोगद्वार का पृथक्पृथक् उल्लेख करते हुए उनके साथ 'अनुगम' शब्द को योजित किया गया है, पर तत्त्वार्थ सूत्र में अनुयोगद्वार के सूचक उन सत् - संख्या आदि शब्दों के मध्य में 'द्वन्द्व' समास किया गया है । वहाँ पिछले 'प्रमाणनयैरधिगम:' सूत्र (१-६) के अन्तर्गत 'अधिगम' शब्द की अनुवृत्ति रहने से तृतीयान्त बहुवचन के द्वारा यह सूचित कर दिया गया है कि इन सत् - संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है। इसीलिए वहाँ 'अनुगम' जैसे किसी शब्द को प्रत्येक पद के साथ योजित नहीं करना पड़ा। इस प्रकार सूत्र में जो लाघव होना चाहिए वह यहाँ तत्त्वार्थसूत्र में रहा है व अभिप्राय कुछ छूटा नहीं है ।
यहाँ यह विशेष स्मरणीय है कि षट्खण्डागम की रचना आगमपद्धति पर शिष्यों के सम्बोधनार्थ प्रायः प्रश्नोत्तर शैली में की गयी है, इसलिए वहाँ विस्तार भी अधिक हुआ है तथा पुनरुक्ति भी हुई है । पर तत्त्वार्थसूत्र की रचना मुमुक्षु भव्य जीवों को लक्ष्य में रखकर की गई है, इसलिए उसमें उन्हीं तत्त्वों का समावेश हुआ है जो मोक्ष प्राप्ति में उपयोगी रहे हैं । उसकी संरचना में इसका विशेष ध्यान रखा गया है कि कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिप्राय को प्रकट किया जा सके । यह उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है ।
(२) ष० ख० में वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में प्रसंगप्राप्त नोआगमभावबन्ध की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में नोआगम जीवभावबन्ध के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- विपाक प्रत्ययिक, अविपाक प्रत्ययिक और तदुभय प्रत्ययिक नोआगम भावबन्ध | यहाँ विपाक का अर्थ उदय, अविपाक का अर्थ विपाक के अभावभूत उपशम और क्षय तथा तदुभय का अर्थ क्षयोपशम है । तदनुसार फलित यह हुआ कि नोआगमजीवभावबन्ध चार प्रकार का है - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । आगे के सूत्र में अविपाकप्रत्ययिक
वे वाचक उच्च नागर शाखा के थे । उमास्वाति विहार करते हुए कुसुमपुर पहुँचे । वहाँ उन्होंने गुरुपरिपाटी के क्रम से आये हुए जिनवचन (जिनागम) का भली-भाँति अवधारण करके दुःख से पीड़ित जीवों के लिए अनुकम्पावश तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र को रचा । ६५८ / षट्खण्डागम - परिशीलन
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