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गतिपर्याय से परिणत होने पर गमन सम्भव है, कम से रहित (मुक्त) जीवों का भी ऊध्वंगमन परिणाम सम्भव है; यह धर्मास्तिकाय के स्वभाव की सहायता रूप निमित्तभेद से होता है, क्योंकि वह पृथक्-पृथक पर्याय से परिणत संसारी जीवों के पृथक्-पृथक् क्षेत्रो मे गमन का हेतु है । धर्मास्तिकाय से रहित क्षेत्रों में पूर्वोक्त गमन की सम्भावना भी नहीं है। ___इसी प्रकार से आगे अधर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों के आश्रय से प्रकृत निबन्ध का निरूपण है।
'निबन्धन' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत केवल उपर्युक्त एक प्रसंग को बतलाकर उससे सम्बद्ध पंजिका को समाप्त कर दिया गया है।'
आगे 'अब प्रक्रम अधिकार के उत्कृष्ट प्रक्रमद्रव्य सम्बन्धी उक्त अल्पबहुत्व के विषय में हम विवरण देंगे' इस सूचना के साथ प्रक्रम अनुयोगद्वार में प्ररूपित अल्प बहुत्व में से कुछ प्रसंगों को लेकर उनका विवेचन है। बीच-बीच में यहाँ व आगे भी कुछ अंक-संदृष्टियां दी गयी हैं, पर उनके विषय में कुछ काल्पनिक सूचना नहीं है । इसके अतिरिक्त वे कुछ अव्यवस्थित और अशुद्ध भी हैं। इससे उनका समझना कठिन रहा है ।
पंजिकाकार के द्वारा इस पंजिका में प्रसंगप्राप्त अल्पबहत्व के अतिरिक्त प्रायः अन्य किसी विषय का स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। उक्त अल्पबहुत्व से सम्बद्ध पंजिका को ‘एवं पक्कमाणियोगो गदो' इस सूचना के साथ समाप्त कर दिया गया है।
संतकम्मपाहुड
उपक्रम अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए मूलग्रन्थकार ने उपक्रम के भेद-प्रभेदों का निर्देश करके यह सूचना की है कि बन्धनोपक्रम के प्रकृतिबन्धनोपक्रम, स्थितिबन्धनोपक्रम, अनुभागबन्धनोपक्रम और प्रदेशबन्धनोपक्रम इन चार भेदों की प्ररूपणा जैसे 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत' में की गयी है वैसे ही यहाँ करनी चाहिए।' __ यहाँ जो ‘सत्कर्मप्राभूत' का उल्लेख है उसके स्पष्टीकरण में पंजिकाकार कहते हैं कि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के चौबीस अनुयोगद्वारों में दूसरा 'वेदना' नाम का अनुयोग द्वार है। उसके सोलह अनुयोगद्वारों में चौथा, छठा और सातवां ये तीन अनुयोगद्वार क्रम से द्रव्य विधान, कालविधान और भावविधान नामवाले हैं। उस महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का पांचवां 'प्रकृति' नाम का अधिकार है। वहाँ चार अनुयोगद्वारों में आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसत्त्व की प्ररूपणा करके उत्तरप्रकृतियों के सत्त्व की सूचना की गयी है। इससे ये 'सत्कर्मप्राभृत' हैं। मोहनीय की अपेक्षा कषायप्राभृत भी है।
यहाँ पंजिकाकार का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है। वे 'सत्कर्मप्राभृत' किसे कहना चाहते हैं, यह उनकी भाषा से स्पष्ट नहीं होता। सन्दर्भ इस प्रकार है--
"संतकम्मपाहुडं तं कध(द) मं? महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउवीसअणियोगद्दारेसु बिदिया
१. संतकम्मपंजिया (पु० १५, परिशिष्ट), पृ० १-३ २. वही, पृ० ३-१७ ३. संतकम्मपंजिया, धवला, पु० १५, पृ० ४३ ४. देखिये पंजिका, पृ० १८
सत्कर्मपंजिका | ५३
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