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दोनों ग्रन्थों में परिवर्तित हैं।'
(४) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में क्षेत्र की अपेक्षा सूत्र (१,२,४) में निर्दिष्ट मिथ्यावृष्टि जीवराशि के प्रमाण को स्पष्ट करते हुए धवला में उस प्रसंग में यह पूछा गया है कि क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादष्टि जीवराशि को कैसे मापा जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जिस प्रकार प्रस्थ (एक माप विशेष) के द्वारा जौ, गेहूँ आदि को मापा जाता है, उसी प्रकार 'लोक' के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी जाती है। इस प्रकार से मापने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्त लोकप्रमाण होती है। आगे वहाँ धवला में 'एत्थुवउज्जती गाहा' ऐसी सूचना करते हुए "पत्येण कोद्दवं वा” इत्यादि गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा आवश्यकनियुक्ति में उसी रूप में उपलब्ध होती है।
३. आप्तमीमांसा--इसका दूसरा नाम देवागमस्तोत्र है। आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित यह एक स्तुतिपरक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके ऊपर आचार्य भट्टाकलंकदेव द्वारा विरचित अष्ट शती और आचार्य विद्यानन्द द्वारा विरचित अष्टसहस्री जैसी विशाल टीकाएँ हैं। धवला में इसकी कुछ कारिकाओं को समन्तभद्रस्वामी के नामनिर्देशपूर्वक उद्धृत किया गया है । यथा
(१) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में निक्षेप योजनापूर्वक उसके शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए धवला में त्रिकालविषयक अनन्तपर्यायों की परस्पर में अजहद्वत्ति (अभेदात्मकता) को द्रव्य का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। प्रमाण के रूप में वहाँ 'वुत्तं च' कहते हुए ‘आप्तमीमांसा' की १०७वीं कारिका को उद्धृत किया गया है।
(२) इसी कारिका को आगे धवला में जीवस्थान चूलिका में अवधिज्ञान के प्रसंग में भी 'अत्रोपयोगी श्लोकः' कहते हुए उद्धृत किया गया है।
(३) आगे 'कृति' अनुयोगद्वार में नयप्ररूपणा के प्रसंग में आ० पूज्यपाद-विरचित सारसंग्रह के अन्तर्गत नय के लक्षण को उद्धृत करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि अनन्त पर्यायस्वरूप वस्तु की उन पर्यायों में से किसी एक पर्यायविषयक ज्ञान के समय निर्दोष हेतु के आश्रित जो प्रयोग किया जाता है, उसका नाम नय है।
इस पर वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि अभिप्राय-युक्त प्रयोक्ता को यदि 'नय' नाम से कहा जाता है तो उचित कहा जा सकता है, किन्तु प्रयोग को नय कहना संगत नहीं है, क्योंकि नित्यत्व व अनित्यत्व आदि का अभिप्राय सम्भव नहीं है।
इस शंका का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि वैसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि नय के आश्रय से जो प्रयोग उत्पन्न होता है वह प्रयोक्ता के अभिप्राय को प्रकट करने वाला होता है, इसलिए कार्य में कारण के उपचार से प्रयोग के भी नयरूपता सिद्ध है। यह स्पष्ट करते हुए आगे 'तथा समन्तभद्रस्वामिनाप्युक्तम्' इस प्रकार की सूचना के साथ आप्त
१. ये गाथाएं जीवसमास (३१-३३) में भी आचा० नि० के पाठ के अनुसार ही उपलब्ध
होती हैं। २. धवला पु० ३, पृ० ३२ और आव० नि० ८७ (पृ० ६३) ३. धवला, पु० ३, पृ० ६ ४. धवला, पु० ६, पृ० २८
६१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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