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जत्थ
इन दोनों गाथाओं का उत्तरार्ध शब्दशः समान है । अभिप्राय भी दोनों का समान ही है।
विषयविवेचन की दृष्टि से धवला और अनुयोगद्वार में बहुत-कुछ समानता देखी जाती है । तुलनात्मक दृष्टि से इसका विचार पीछे 'षट्खण्डागम व अनुयोगद्वार' शीर्षक में विस्तार से किया जा चुका है।
२. आचारांगनियुक्ति ---आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा आचारांग पर गाथाबद्ध नियुक्ति लिखी गयी है । धवला में प्रसंगानुसार उद्धृत कुछ गाथाओं में इस नियुक्ति की गाथाओं से समानता देखी जाती है । यथा
(१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में धवलाकार ने मंगल के विषय में विस्तार से प्ररूपणा की है। उस प्रसंग में निक्षेपों की प्ररूपणा के अनन्तर यह प्रश्न उपस्थित हुआ है कि इन निक्षेपों में यहाँ किस निक्षेप से प्रयोजन है । इसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि प्रकृत में तत्परिणत नोआगमभावनिक्षेप से प्रयोजन है।
इस प्रसंग में यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि यहाँ तत्परिणत नोआगमभावनिक्षेप से प्रयोजन रहा है तो अन्य निक्षेपों की प्ररूपणा यहाँ किसलिए की गयी है। इसके उत्तर में आगे इस गाथा को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि इस वचन के अनुसार यहाँ निक्षेप किया गया है।'
णज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवेणियमा। जत्थ बहुअंण जाणदि चउट्ठयं णिक्खिवे तत्थ ॥ यह गाथा कुछ थोड़े परिवर्तन के साथ आचारांगनियुक्ति में इस प्रकार पायी जाती है
जत्य य जं जाणिज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेस ।
जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्य ।। दोनों गाथाओं का अभिप्राय तो समान है ही, साथ ही उनमें शब्दसाम्य भी बहुत-कुछ है।
(२) आचारांगनियुक्ति के 'शस्त्रपरिज्ञा' अध्ययन में सात उद्देश हैं जिनमें क्रम से जीव, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक, असकायिक और वायुकायिक जीवों का उल्लेख करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि उनके वध से चूंकि बन्ध होता है, इसलिए उससे विरत होना चाहिए।
धवला में उपर्युक्त सत्प्ररूपणा में कायमार्गणा के प्रसंग में पृथिवीकायिकादि जीवों के भेद- - प्रभेदों को प्रकट किया गया है । उस प्रसंग में वहाँ त्रस जीव बादर हैं या सूक्ष्म, यह पूछे जाने पर धवलाकार ने कहा है कि वे बादर हैं, सूक्ष्म नहीं हैं; क्योंकि उनकी सूक्ष्मता का विधान करने वाला आगम नहीं है । इस पर पुनः वहाँ यह प्रश्न उपस्थित हुआ है कि उनके बादरत्व का विधान करनेवाला भी तो आगम नहीं है, तब ऐसी अवस्था में यह कैसे समझा जाय कि वे बादर हैं, सूक्ष्म नहीं हैं । इसके उत्तर में वहाँ धवलाकार ने कहा है कि आगे के सूत्रों में जो पृथिवीकायिकादिकों के सूक्ष्मता का विधान किया गया है, उससे सिद्ध है कि त्रस जीव बादर
१. धवला, पु० १, पृ० ३० २. आचा०नि० ४; यह गाथा अनुयोगद्वार (१-६) में भी इसी रूप में प्राप्त होती है। ३. आचारा०नि०३५
६१० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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