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हुए उस प्रसंग में यह एक सूत्र उपलब्ध होता है
जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे तस्संतिए वेणइयं परंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ
कायग्गिरा भो मणसा अनिच्चं ॥-दशवै० ६,१,१२ (पृ ४८६) धवला में मंगलप्ररूपणा के प्रसंग में यह एक शंका उठायी गयी है कि समस्त कर्मफल से निर्मुक्त हुए सिद्धों को पूर्व में नमस्कार न करके चार अघाती कर्मों से सहित अरहन्तों को प्रथमत: क्यों नमस्कार किया गया है । इसके उत्तर में वहाँ यह कहा गया है कि अरहन्त के न होने पर हमें आप्त, आगम और पदार्थों का बोध होना सम्भव नहीं है, इसलिए चूंकि अरहन्त के आश्रय से उन गुणाधिक सिद्धों में श्रद्धा अधिक होनेवाली है इसीलिए उक्त उपकारी की दष्टि से सिद्धों के पूर्व में अरहन्तों को नमस्कार किया गया है । अतएव उसमें कुछ दोष नहीं है। इसके आगे वहाँ 'उक्तं च' ऐसा निर्देश करते हुए इस पद्य को उद्धृत किया गया है
जस्संतियं धम्मवह णिगच्छे तस्संतियं वेणइयं पउंजे । सक्कारए तं सिरपंचमेण
काएण वाया मणसा वि णिच्चं ॥ इन दोनों ग्रन्थों में उपर्युक्त इस पद्य में पर्याप्त समानता है। जो कुछ पाठभेद हुआ है उसमें कुछ लिपिदोष से भी सम्भव है। दशवकालिक में व्यवहृत उसके तृतीय चरण में छन्दोभंग दिखता है । अभिप्राय उन दोनों का समान ही है।
१५. धनंजय अनेकार्थनाममाला-इसके रचयिता वे ही कवि धनंजय हैं, जिनके द्वारा 'द्विसन्धानकाव्य' और 'विषापहार स्तोत्र' रचा गया है।
___ धवला में प्रसंगवश इस अनेकार्थनाममाला के "हेतावेवं प्रकारादो" आदि पद्य को उद्धत किया गया है।
१६. ध्यानशतक-यह कब और किसके द्वारा रचा गया है, यह निर्णीत नहीं है। फिर भी उस पर सुप्रसिद्ध हरिभद्र सूरि के द्वारा टीका लिखी गयी है । हरिभद्र सूरि का समय आठवीं शताब्दी माना जाता है। अतएव वह आठवीं शताब्दी के पूर्व रचा जा चुका है, यह निश्चित है।
षट्खण्डागम में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'कर्म' अनुयोगद्वार में कर्म के नामकर्म व स्थापनाकर्म आदि दस भेदों की प्ररूपणा की गयी है। उनमें आठवां तपःकर्म है। ग्रन्थकार ने उसे अभ्यन्तर के साथ बाह्य तप को लेकर बारह प्रकार का कहा है। -सूत्र ५,४,२५-२६
उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने अनेषण (अनशन) आदि रूप छह प्रकार के बाह्य तप की और प्रायश्चित्त आदि रूप छह प्रकार के अभ्यन्तर तप की प्ररूपणा की है। उस प्रसंग में उन्होंने अभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग इन
१. धवला, पु० १, पृ० ५३-५४ २. धवला, पु०६, पृ० १४
अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६२९
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