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ग्रन्थोल्लेख
यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि आचार्य वीरसेन सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, गणित. मंत्र-तंत्र, क्रियाकाण्ड और ज्योतिष आदि अनेक विषयों में पारंगत होकर एक प्रामाणिक टीकाकार रहे हैं। यह इससे स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी इस महत्त्वपूर्ण धवला टीका में उपर्यक्त विषयों से सम्बद्ध ग्रन्थों के अवतरणों को यथाप्रसंग प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। इनमें कुछ ग्रन्थगत अवतरणों को तो उन्होंने ग्रन्थ के नामनिर्देशपूर्वक उद्धत किया है। यहां हम प्रथमतः उन ग्रन्थों का उल्लेख करेंगे जिनका उपयोग उन्होंने नामनिर्देश के साथ किया है। वे इस प्रकार हैं
१ आचारांग, २ उच्चारणा, ३ कम्मपवाद, ४ करणाणिओगसुत्त, ५ कसायपाहुड, ६ चुण्णिसत्त, ७ छेदसुत्त, ८ जीवसमास, ६ जोणिपाहुड, १० णिरयाउबंधसुत्त, ११ तच्चट्ठ, तच्चत्थसुत्त, तत्त्वार्थसूत्र; १२ तत्त्वार्थभाष्य, १३ तिलोयपण्णत्तिसुत्त, १४ परियम्म, १५ पंचत्थिपाह. १६ पाहडसुत्त, १७ पाहुडचुण्णिसुत्त, १८ पिडिया, १६ पेज्जदोस, २० महाकम्मपयडिपाहुड, २१ मूलतंत, २२ वियाहपण्णत्तिसुत्त, २३ सम्मइसुत्त; २४ संतकम्मपय डिपाहुड, २५ संतकम्मपाहुड, २६ सारसंगह और २७ सिद्धिविनिश्चय। इनमें से यहां कुछ का परिचय प्रसंग के अनुसार कराया जा रहा है
१. आचारांग-यहाँ आचारांग से अभिप्राय वट्टकेराचार्य-विरचित 'मूलाचार' का रहा है। वह मा० दि० जैन ग्रन्थमाला से आचारवृत्ति के साथ दो भागों में प्रकाशित हो चुका है।
धवलाकार ने आज्ञाविचय धर्मध्यान से सम्बद्ध उसकी एक गाथा (५-२०२) को तह आयारंगे वि वृत्तं' इस निर्देश के साथ कालानुगम के प्रसंग में उद्धृत किया है।'
२. उच्चारणा-यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है, यह तो प्रतीत नहीं होता। पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री के द्वारा लिखी गयी 'कसायपाहुडसुत्त' की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि जयधवला में उच्चारणा, मूल उच्चारणा, लिखित उच्चारणा, वप्पदेवाचार्य-विरचित उच्चारणा और स्वलिखित उच्चारणा का उल्लेख किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि श्रुतकेवलियों के पश्चात् जो श्रुत की परम्परा चलती रही है उसमें कुछ ऐसे विशिष्ट आचार्य होते रहे हैं जो परम्परागत सूत्रों के शुद्ध उच्चारण के साथ शिष्यों को उनके अर्थ का व्याख्यान किया करते थे। ऐसे आचार्यों को उच्चारणाचार्य व व्याख्यानाचार्य कहा जाता है । ऐसे
१. धवला पु० ४, पृ० ३१६ और मूलाचार गाथा ५-२०२ २. क. पा० सुत्त, प्रस्तावना, पृ० २६-२७
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