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स्पर्श को प्रकत कहा है। -सूत्र ५, ३, ३३
इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि अध्यात्म-विषयक इस खण्ड ग्रन्थ की अपेक्षा यहाँ कर्मस्पर्श को प्रकृत कहा गया है। किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में द्रव्य स्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श ये तीन प्रकृत रहे हैं।'
(६) 'कर्म' अनुयोगद्वार में सूत्र कार द्वारा जिन कर्मनिक्षेप व कर्मनयविभाषणता आदि १६ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है (सूत्र ५, ४, २) उनमें उन्होंने प्रारम्भ के उन दो अनयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष कर्मनामविधान आदि १४ अनुयोगद्वारों की उन्होंने प्ररूपणा नहीं की हैं।
उन शेष १४ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वहाँ धवलाकार ने की है। इस प्रसंग में वहां यह शंका उठी है कि उपसंहारकर्ता ने उनकी प्ररूपणा स्वयं क्यों नहीं की है। उत्तर में धवलाकार कहा है कि पुनरुक्तिदोष के प्रसंग को टालने के लिए उन्होंने उनकी प्ररूपणा नहीं की है। इस पर वहां पुनः यह शंका की गयी है तो फिर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में उन अनुयोगद्वारों के द्वारा उस कर्म की प्ररूपणा किसलिए की गयी है।
७) बन्धनअनुयोगद्वार में वर्गणाओं की प्ररूपणा करते हुए 'वर्गणाद्रव्यसमुदाहार' के प्रसंग में जिन वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा आदि १४ अनुयोगद्वारों का सूत्र (७५) में उल्लेख किया गया है, उनमें सूत्रकार द्वारा प्रथम दो अनुयोगद्वारों को ही प्ररूपणा की गई है, शेष वर्गणाध्र वाधवानुगम आदि १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की है।
- इस पर उस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि सूत्र कार ने चौदह अनुयोगवारों में दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा किसलिए नहीं की है । अजानकार होते हुए उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, यह तो सम्भव नहीं है। क्योंकि चौबीस अनुयोगद्वारों स्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारगामी भूतबलि भगवान् के तद्विषयक ज्ञान के न रहने का विरोध है।
१८. मलतंत्र-वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'कर्म' अनुयोगद्वार में सूत्रकार ने अन्त में यह निर्देश किया है कि उक्त दस कर्मों में यहाँ 'समवदानकर्म' प्रकृत है। -सूत्र ५,४,३१
इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि समवदानकर्म यहां इस लिए प्रकृत है कि 'कर्म' अनुयोगद्वार में उसी की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। अथवा संग्रहनय की अपेक्षा सत्र में वैसा कहा गया है। मूलतंत्र में तो प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म इनकी प्रधानता रही है, क्योंकि वहाँ इन सबकी विस्तार से प्ररूपणा की है।
'मूलतंत्र' यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है, ऐसा तो प्रतीत नहीं होता । सम्भवत: धवलाकार का अभिप्राय उससे महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अन्तर्गत चौबीस अनुयोगद्वारों में से 'कर्म' अनुयोगद्वार (चतुर्थ) का रहा है । पर उसमें भी यह विचारणीय प्रश्न बना रहता है कि वह धवला
१. धवला, पु० १३, पृ० ३६ २. धवला, पु० १३, पृ० १६६ ३. धवला, पु० १४, पृ० १३४ ४, धवला, पु० १३, पृ० ६०
५६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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