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नत्थि नएहि विहणं सुत्तं अत्यो य जिणमए किचि ।
आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूआ॥-नि० ६६१ दूसरी गाथा सन्मतिसूत्र की है जो इन दो गाथाओं से बहुत-कुछ समान है -
सुतं अत्यनिमेण न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती। अत्यगई उण णयवायगहणलोणा दुरभिगम्मा ॥३-६४ तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं ।
आयरियधरिहत्या हंदि महाणं विलंबेन्ति ॥३-६५ इस प्रकार उन में दूसरी गाथा सन्मतिसूत्र की उपर्युक्त गाथा ६५ के पूर्वार्द्ध और ६४वीं गाथा के उत्तरार्ध के रूप में है।
इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार को परम्परागत सैकड़ों माथाएँ कण्ठस्थ रही हैं । प्रसंग प्राप्त होने पर उन्होंने उनमें से स्मृति के आधार पर आवश्यकतानुसार एक-दो आदि गाथाओं को उद्धृत कर दिया है । इसीलिए उनमें आगे-पीछे पाठभेद भी हो गया है। उदाहरणस्वरूप लेश्या की प्ररूपणा जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में और तत्पश्चात् पूर्वनिर्दिष्ट शेष १८ अनुयोगद्वारों में से 'लेश्याकर्म' (१४) अनुयोगद्वार में भी की गई है। उसके प्रसंग में दोनों स्थानों पर कृष्ण आदि लेश्याओं से सम्बन्धित नौ गाथाओं को उद्धृत किया गया है, जिनमें कुछ पाठभेद भी हो गया है।'
__ कहीं-कहीं पर प्रसंग के पूर्णरूप से अनुरूप न होने पर भी उन्होंने कुछ गाथाओं आदि को उद्धृत कर दिया है। उदाहरण के रूप में जीवस्थान-कालानुगम में कालविषयक निक्षेप को प्ररूपणा करते हुए धवला में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के स्वरूप को प्रकट किया गय है। उसकी पुष्टि में प्रथमतः जो पंचास्तिकाय आदि की चार गाथाओं को उद्धृत किया गया है, वे प्रसंग के अनुरूप हैं। किन्तु आगे चलकर जो 'जीवसमासाए वि उत्तं' कहकर एक गाथा को तथा 'तह आयारंगे वि वुत्तं' कहकर दूसरी गाथा को उद्धृत किया गया है, वे आज्ञाविचय धर्मध्यान से सम्बद्ध हैं व प्रसंग के अनुरूप नहीं हैं।
२१. संतकम्मपडिपाहुर-यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का कोई विशेष प्रकरण रहा है, यह ज्ञात नहीं है। इसका धवला में दो बार उल्लेख हुआ है
(१) 'कृति' अनुयोगद्वार में गणनाकृति के प्ररूपक सूत्र (४,१,६६) को देशामर्शक कहकर धवलाकार ने उसकी व्याख्या में कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति इन कृति-भेदों की विस्तार से प्ररूपणा की है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है। उसी प्रसंग में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि यह अल्पबहुत्व सोलह पद वाले अल्पबहत्व के साथ विरोध को प्राप्त है, क्योंकि उसके अनुसार सिद्धकाल से सिद्धों का संख्यातगुणत्व नष्ट होकर उससे विशेषाधिकता का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए यहाँ उपदेश प्राप्त करके किसी एक का निर्णय करना चाहिए । 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत' को छोड़कर उपर्युक्त सोलह पदवाले अल्पबहुत्व
१. धवला, पु० १, पृ० ३८५-६० और पु० १६, पृ० ४६०-६२ २. वही, पु० ४, पृ० ३१५-१६ ३. सोलह पद वाले अल्पबहुत्व के लिए देखिए धवला, पु० ३, पृ० ३०
अन्योल्लेख /६०३
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