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कार के समक्ष तो नहीं रहा । तब उन्होंने यह कैसे समझा कि उसमें इन कर्मों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है । हो सकता है कि परम्परागत उपदेश के अनुसार उनको तद्विषयक परिज्ञान रहा हो ।
यहाँ यह स्मरणीय है कि धवलाकार ने ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में वर्धमान भट्टारक को मूलकर्ता गौतमस्वामी को अनुतंत्र कर्ता और भूतबलि पुष्पदन्त आदि को उपतंत्र कर्ता कहा है ।" १६. विवाहपण्णत्तिसुत - - धवला में इसका उल्लेख दो प्रसंगों पर किया गया है
(१) जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशि का द्रव्यप्रमाण अनन्तानन्त लोक निर्दिष्ट किया गया है । – सूत्र १,२,४
इसकी व्याख्या में लोक के स्वरूप को प्रकट करते हुए उस प्रसंग में तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ हुई है, यह पूछा गया है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसकी समाप्ति तीन वातवयों के बाह्य भाग में हुई है । इस पर यह पूछने पर कि वह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह "लोगोवादपदिट्ठिदो" इस व्याख्याप्रज्ञप्ति के कथन से जाना जाता है । "
(२) वेदनाद्रव्यविधान में द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में यह कहा गया है कि जो क्रम से काल को प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले जलचर जीवों में उत्पन्न हुआ है। सूत्र ४,२,४,३६
यहाँ सूत्र में जो क्रम से काल को प्राप्त होकर' ऐसा कहा गया है, उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि परभव-सम्बन्धी आयु के बँध जाने पर पीछे भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता है, यह अभिप्राय प्रकट करने के लिए 'क्रम से काल को प्राप्त होकर' यह कहा गया है ।
इस पर वहाँ यह शंका की गई है कि परभव-सम्बन्धी आयु को बाँधकर भुज्यमान आयु के घातने में क्या दोष है । इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि वैसी परिस्थिति में जिसकी भुज्यमान आयु निर्जीर्ण हो चुकी है और परभव-सम्बन्धी आयु का उदय नहीं हुआ है, ऐसे जीव के चारों गतियों के बाहर हो जाने के कारण अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । यही उसमें दोष है ।
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इस पर शंकाकार कहता है कि वैसा स्वीकार करने पर "जीवाणं भंते ! कदिभागावसेससि आउगंसि इस व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के साथ विरोध कैसे न होगा। इसके उत्तर धवलाकार ने कहा है कि आचार्यभेद से भेद को प्राप्त वह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इससे भिन्न है । अतः इससे उसकी एकता नहीं हो सकती । ३
यहाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति से धवलाकार को क्या अभिप्रेत रहा है, यह विचारणीय है
(१) बारह अंगों में व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का पाँचवाँ अंग रहा है । उसमें क्या जीव है, क्या जीव नहीं है, इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान किया गया है।
(२) दूसरा व्याख्याप्रज्ञप्ति श्रुत बारहवें दृष्टिवाद अंग के परिकर्म व सूत्र आदि पाँच
१. धवला, पु० १, पृ० ७२
२. धवला, पु० ३, पृ० ३४-३५ ३. धवला, पु० १०, पृ० २३७-३८
४. धवला, पु० १, पृ० १०१
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ग्रन्थोल्लेख / ५६ε
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