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किया है कि यथार्थ में यह व्याख्यान उसके विरुद्ध है, किन्तु यहाँ 'यही सत्य है या वही सत्य है' ऐसा एकान्तग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि श्रुतकेवलियों अथवा प्रत्यक्षज्ञानियों के बिना वैसा अवधारण करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग प्राप्त होता है (पु०८, पृ० ५६)।
(४) वेदनाद्रव्यविधान में स्वामित्व के प्रसंग में ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट किस के होती है, इसका विस्तार से विचार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि गुणितकमाशिक स्वरूप से परिभ्रमण करता हुआ जो जीव अन्तिम भव में सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है, वह उस अन्तिम समयवर्ती नारकी के होती है।
यहां सत्र ३२ की धवला टीका में निर्दिष्ट भागहारप्रमाण के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि यह कैसे जाना जाता है। इसके समाधान में वहां यह कहा गया है कि वह पाहुहुसत्त में जो उसकी प्ररूपणा की गयी है उससे जाना जाता है। आगे कसायपाहड में जिस प्रकार से उसकी प्ररूपणा की गयी है उसे स्पष्ट करते हुए अन्त में वहां कहा गया है कि इस प्रकार 'कसायपाहुड' में कहा गया है।'
(५) इसी वेदनाद्रव्यविधान के प्रसंग में आगे धवला में कर्मस्थिति के आद्य समयप्रबद्ध सम्बन्धी संचय के भागहार प्रमाण को सिद्ध करते हुए सूचित किया गया है कि पाहड में अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य की जो प्ररूपणा की गयी; उसके प्रसंग में यह कहा गया है कि एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी कर्मस्थिति में निषिक्त द्रव्य का काल दो प्रकार से जाता है—सान्तरवेदककाल के रूप से और निरन्तरवेदककाल के रूप से; इत्यादि ।
(६) इसी प्रसंग में आगे धवला में कसायपाहुड की ओर संकेत करते हुए यह कहा गया है कि चारित्रमोहनीय की क्षपणा में जो आठवीं मूल गाथा है उसकी चार भाष्यगाथाएं हैं। उनमें से तीसरी भाष्यगाथा में भी इसी अर्थ की प्ररूपणा की गयी है। यथा-असामान्यस्थितियां एक, दो व तीन इस प्रकार निरन्तर उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक जाती हैं।
--पु० १०, पृ० १४३ कसायपाहुड में चारित्रमोह की क्षपणा के प्रसंग में आयी हुई आठवीं मूलगाथा है । उसकी चार भाष्यगाथाओं का उल्लेख चूर्णिकार ने किया है। उनमें तीसरी भाष्यगाथा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए चूणि में कहा गया है कि अब तीसरी भाष्यगाथा का अर्थ कहते हैं। असामान्य स्थितियाँ एक, दो व तीन इस प्रकार अनुक्रम से उत्कृष्ट रूप में पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं । इस प्रकार तीसरी गाथा का अर्थ समाप्त हुआ।
(७) इसी वेदनाद्रव्यविधान में द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की जघन्य वेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए (सूत्र ४८-७५) सूत्रकार ने कहा है कि वह क्षपितकर्माशिकस्वरूप से आते हुए अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के होती है।
इस प्रसंग में अन्तिम सत्र (७५) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उपसंहार के रूप में प्ररूपणा और प्रमाण इन दो अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया है। इनमें 'प्ररूपणा' के प्रसंग में
१. धवला पु० १०, पृ० ११३-१४ तथा क०पा० सुत्त, पृ० २३५-३६ चूणि १-१३ (यह सन्दर्भ
दोनों ग्रन्थों में प्रायः शब्दशः समान है)। २. धवला पु० १०, पृ० १४२ और क०पा० .... ३. कपा० सुत्त पृ० ८३२, चूणि ६२२; पृ० १३३, चू० ६४३ तथा पृ० ८४२, चूणि ६६२-६४ ५७६ / अखण्डागम-परिशीलन
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