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हैं। इसलिए वहाँ एकत्ववितर्क- अवीचार ध्यान के भी होने पर उस आगम-वचन के साथ विरोध की सम्भावना नहीं है ।'
आगे क्रमप्राप्त तीसरे सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान की प्ररूपणा के प्रसंग में उसके स्वरूप, दण्ड- कपाटादिरूप केवलिसमुद्घात, स्थितिकाण्डकों और अनुभागकाण्डकों के घात के क्रम, योगनिरोध के क्रम, पूर्वस्पर्धकों व अपूर्वस्पर्धकों के विधान और कृष्टिकरण इन सब के सम्बन्ध में विचार किया गया है।
इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि केवली के योगनिरोधकाल में जो सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाती ध्यान का सद्भाव बतलाया गया है वह घटित नहीं होता । कारण यह है कि केवली समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानते हैं, अपने समस्त काल में एक स्वरूप से अवस्थित रहते हैं तथा इन्द्रियातीत हैं; इसलिए एक वस्तु में उनके मन का निरोध सम्भव नहीं है और मन के निरोध के बिना ध्यान होता नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता ।
इस शंका के उत्तर में वहाँ यह कहा गया है कि दोष की सम्भावना तब हो सकती थी, जबकि एक वस्तु में चिन्ता के निरोध को ध्यान मान लिया जाता । पर यहाँ ऐसा नहीं माना गया है । यहाँ तो उपचारत: 'चिन्ता' से योग का अभिप्राय रहा है। इस प्रकार जिस ध्यान में योगस्वरूप चिन्ता का एकाग्रता से निरोध (विनाश) होता है उसे ध्यान माना गया है । इसलिए शंकाकार के द्वारा उद्भावित दोष की सम्भावना नहीं है । "
ध्यानशतक में ऐसी ही शंका को छद्मस्थ के अतिशय निश्चल मन को निश्चल काय को ध्यान कहा जाता है। नहीं है ।
हृदयंगम करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार ध्यान कहा जाता है उसी प्रकार केवली के अतिशय योग सामान्य की अपेक्षा मन और काय में कुछ भेद
आगे क्रमप्राप्त चौथे समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है जिस ध्यान में योगरूप क्रिया नष्ट हो चुकी है तथा जो अविनश्वर है उसे समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती ध्यान कहा जाता है । यह चौथा शुक्लध्यान श्रुत से रहित होने के कारण अवितर्क और जीवप्रदेशों के परिस्पन्द के अभाव से अथवा अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण के अभाव से अवीचार है । यहाँ 'एस्थ गाहा' सूचना के साथ यह गाथा उद्धृत की गयी है
अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । जाणं निरुद्धजोगं अपच्छिमं उत्तमं सुक्कं ॥
अर्थात् वह चौथा उत्तम शुक्लध्यान वितर्क व वीचार से रहित, निवृत्त न होनेवाला, क्रिया से विहीन, शैलेशी अवस्था को प्राप्त और योगों के निरोध से सहित होने के कारण सर्वोत्कृष्ट है ।
धवलाकार ने 'एदस्स अत्थो' संकेतपूर्वक यह कहा है कि योग का निरोध हो जाने पर कर्म
१. धवला पु० १३, पृ० ७७-८२
२. धवसा पु० १३, पृ० ८३-८७
३. जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो ।
तह केवल काओ सुनिच्चलो भन्नए झाणं ॥ ८४ ॥
५१८ / षट्खण्डागम-परिशलन
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