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औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धों में स्थित पूर्वोक्त परमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है।
धवला में द्रव्यप्रमाण को प्रकट करते हुए ओघ की अपेक्षा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अधःकर्म की द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थता का तथा ईर्यापथकर्म की प्रदेशार्थता का द्रव्यप्रमाण अनन्त कहा है। कारण यह कि प्रयोगकर्म और समवदानकर्म के अनन्तवें भाग से हीन सब जीवराशि की द्रव्यार्थता को यहां ग्रहण किया गया है । इनकी प्रदेशार्थता भी अनन्त है, क्योंकि इन जीवों को घनलोक से गुणित करने पर प्रयोगकर्म की प्रदेशार्थता का प्रमाण उत्पन्न होता है तथा उन्हीं जीवों को कर्मप्रदेशों से गुणित करने पर समवदानकर्म की प्रदेशार्थता का प्रमाण उत्पन्न होता है।
___ इसी पद्धति से आगे धवला में ओघ और आदेश की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण की तथा क्षेत्र व स्पर्शन आदि अन्य अनुयोगद्वारों की भी प्ररूपणा विस्तार से की गयी है।
(पु० १३, पृ० ६१-१९६) ३. प्रकृति अनुयोगद्वार
__यहां प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अनुयोग द्वारों के नामों के निर्देशपूर्वक नयविभाषणता, निक्षेप व उसके भेद-प्रभेदों आदि की जो चर्चा की गयी है उसे 'मूल ग्रन्थगत विषय-परिचय' में देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त धवला में जो प्रसंगानुरूप विशेष प्ररूपणा की है उसी का परिचय यहाँ कराया जा रहा है।
धवला में यहां पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग में आभिनिबोधिक आदि पांच ज्ञानों के स्वरूप आदि का विचार किया गया है (पु० १३, पृ० २०९-१५)।
इसी प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवग्रह व ईहा आदि आभिनिबोधिक ज्ञान के भेदों को विशद करते हुए प्रसंगानुसार उनके अन्य भेद-प्रभेदों के विषय में भी पर्याप्त विचार किया गया है।
श्रुतज्ञानावरणीय के प्रसंग में श्रुतज्ञान का विचार करते हुए अक्षरसंयोग व उसके आश्रय से उत्पन्न होने वाले भंगों की प्रक्रिया स्पष्ट की गयी है। आगे चलकर अक्षर-अक्षरसमास और पद-पदसमास आदि श्रुतज्ञान के भेदों का निरूपण है। साथ ही सूत्रकार के द्वारा निर्दिष्ट (सूत्र ५,५,५०) प्रावचन, प्रवचनीय व प्रवचनार्थ आदि श्रुतज्ञान के ४८ पर्याय शब्दों को भी स्पष्ट किया गया है। ____ अवधिज्ञानावरणीय की असंख्यात प्रकृतियों का निर्देश करते हुए सूत्रकार ने अवधिज्ञान के इन दो भेदों का उल्लेख किया है-भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक (सूत्र ५,५,५१-५३)। ___अवधिज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात कैसे हैं, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि चूंकि उसके द्वारा आवियमाण अवधिज्ञान के असंख्यात भेद हैं, इसलिए उनका आवरण करने वाले अवधिज्ञानावरणीय कर्म के भी असंख्यात भेद होते हैं।
आगे धवला में सूत्रनिर्दिष्ट (५,५,५४-५६) भवप्रत्यय, गुणप्रत्यय और देशावधि-परमावधि आदि अनेक अवधिज्ञान के भेदों को स्पष्ट किया गया है। किन्तु देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीन अवधिज्ञान-भेदों की विशेष प्ररूपणा न कर यह सूचित कर दिया है कि इनके द्रव्य, क्षत्र, काल और भाव के आश्रय से होनेवाले भेदों की प्ररूपणा जिस प्रकार वेदना
५२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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