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की उत्पत्ति सम्भव नहीं है तो अकर्म से तुम्हारे द्वारा कल्पित उस एक कर्म की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है, क्योंकि कर्मरूप से दोनों में कुछ विशेषता नहीं है । यदि तुम्हारा अभिप्राय यह हो कि कार्मणवगंणा से जो एक कर्म उत्पन्न हुआ है वह कर्म नहीं है तो फिर वैसी अवस्था में उससे आठ कर्मों की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि तुम्हारे अभिमत के अनुसार, अकर्म से कर्म की उत्पत्ति का विरोध है । इसके अतिरिक्त कार्य को कारण का अनुसरण करना ही चाहिए, ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है, अन्यथा मिट्टी के पिण्ड से मिट्टी के पिण्ड को छोड़कर घट-घटी - शराव आदि के न उत्पन्न हो सकने का प्रसंग प्राप्त होता है।
यदि कहा जाय कि सुवर्ण से चूंकि सुवर्णमय घट की ही उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए कार्य-कारण के अनुसार ही हुआ करता है, ऐसा मानना चाहिए; तो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि वैसी परिस्थिति में कठिन सुवर्ण से जो अग्नि आदि के संयोग से सुवर्णमय जल की उत्पत्ति देखी जाती है वह घटित नहीं हो सकेगी। दूसरे, यदि कार्य को सर्वथा कारणस्वरूप ही माना जाता है तो जिस प्रकार कारण नहीं उत्पन्न होता है, उसी प्रकार कार्य को भी नहीं उत्पन्न होना चाहिए ।
इस प्रकार से आगे और भी शंका-समाधानपूर्वक दार्शनिक दृष्टि से उस पर ऊहापोह करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि कर्म कार्मणवर्गणा से सर्वथा भिन्न नहीं हैं, क्योंकि अचेतनता, मूर्तता और पुद्गलरूपता इनकी अपेक्षा उनमें कार्मणवर्गणा से अभेद पाया जाता है । इसी प्रकार वे उक्त कार्मणवर्गणा से सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि ज्ञानावरणादिरूप प्रकृति के भेद से, स्थिति के भेद से, अनुभाग के भेद से तथा जीवप्रदेशों के साथ परस्पर में अनुबद्ध होने से उनमें कार्मणवर्गणा से भिन्नता भी पाई जाती है। इससे सिद्ध होता है कि कार्य कथंचित् कारण के अनुसार होता है और कथंचित् अनुसरण न करके उससे भिन्न भी होता है ।
सत्-असत् कार्यवाद पर विचार
इसी प्रसंग में कार्य को सर्वथा सत् मानने वाले सांख्यों के अभिमत को प्रकट करते हुए यह कारिका उद्धृत की गयी है---
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्धकरणा कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ सांख्य का० ६, सत्कार्यवादी सांख्य कारण व्यापार के पूर्व भी कार्य सत् है, इस अपने अभिमत की पुष्टि में ये पांच हेतु देते हैं
(१) कार्य पूर्व में भी सत् है, अन्यथा उसे किया नहीं जा सकता है । जैसे तिलों में तेल विद्यमान रहता है तभी यंत्र की सहायता से उसे उत्पन्न किया जाता है, बालू में असत् तेल को कभी किसी भी प्रकार से नहीं निकाला जा सकता है ।
(२) उपादानग्रहण - उपादान का अर्थ है नियत कारण से कार्य का सम्बन्ध । घट आदि कार्य मिट्टी आदि अपने नियत कारण से सम्बद्ध रहकर ही अभिव्यक्त होते हैं । कार्य यदि असत् हो तो उसका सम्बन्ध ही नहीं बनता, अन्यथा मिट्टी से जैसे घट उत्पन्न होता है वैसे ही उससे पट भी उत्पन्न हो जाना चाहिए । पर वैसा होना सम्भव नहीं है ।
(३) सर्वसम्भव का अभाव - सबसे सब कार्य उत्पन्न नहीं होते, किन्तु प्रतिनियत कारण प्रतिनियत कार्यही उत्पन्न होता है । यदि कार्य अपने प्रतिनियत कारण में सत् न हो तो ५३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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