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गुणस्थान को प्राप्त हुआ है उसके उदीरणा के व्युच्छिन्न हो जाने पर उत्कर्ष से वेदनीय की उदीरणा उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाणकाल तक होती है । इसी प्रकार उपशान्तकषाय से पतित होकर व उपार्धंपुद् गल परिवर्तनप्र माणकाल तक परिभ्रमण करके पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थान को प्राप्त हुआ है उसके उदीरणा के व्युच्छिन्न हो जाने पर मोहनीय की उदीरणा उत्कर्ष से उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाणकाल तक होती है ।
इसी प्रकार से आगे एक जीव की अपेक्षा आयु आदि अन्य मूल प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट उदीरणाकाल की प्ररूपणा की गयी है
वेदनीय, मोहनीय और आयु को छोड़ शेष मूल प्रकृतियों का उदीरक वह अनादि - अपर्यवसित होता है जो क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ नहीं हुआ है । तथा क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हुआ वह उनका उदीरक सादि सपर्यवसित होता है, क्योंकि वहाँ उनकी उदीरणा का व्युच्छेद हो जाता है ( पु० १५, पृ० ४४-४८ ) ।
इसी क्रम से आगे यहाँ एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और अल्पबहुत्व के आश्रय से भी यथासम्भव उस उदीरणा की प्ररूपणा की गयी है । नाना जीवों की अपेक्षा उसके अन्तर की असम्भावना प्रकट कर दी गयी है ।
एक-एक प्रकृति का अधिकार होने से यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणा सम्भव नहीं है ।
प्रकृतिस्थानसमुत्कीर्तन के प्रसंग में उदीरणा के इन पाँच प्रकृतिस्थानों की सम्भावना व्यक्त की गयी है-आठ प्रकार के, सात प्रकार के छह प्रकार के, पाँच प्रकार के और दो प्रकार के कर्मों के प्रकृतिस्थान । इनमें सब ही प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाले के आठ प्रकार की आयु के बिना सात प्रकार की आयु व वेदनीय के बिना अप्रमत्तादि गुणस्थानों में छह प्रकार की तथा मोहनीय, आयु और वेदनीय के बिना क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय गुणस्थानों पाँच प्रकार की उदीरणा होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु अन्तराय के बिना सयोगिकेवली गुणस्थान में दो की उदीरणा होती है ।
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और
जिस प्रकार पूर्व में एक-एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व तीन अधिकारों में की गयी है उसी प्रकार इस प्रकृतिस्थान उदीरणा की भी प्ररूपणा इन्हीं स्वामित्व आदि अधिकारों में की गयी है ।
नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर के प्रसंग में यहाँ पाँच प्रकृतियों के उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह मास कहा गया है। शेष प्रकृतिस्थानों के उदींरकों का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा सम्भव नहीं है ( पु० १५, पृ० ४८- ५० ) ।
• भुजाकार के प्रसंग में यहाँ भुजाकार आदि का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस समय जिन प्रकृतियों की उदीरणा कर रहा है उसके अनन्तर पूर्व समय में उनसे कम की उदीरणा करता है, यह भुजाकार उदीरणा है। इस समय जितनी प्रकृतियों की उदीरणा कर रहा है उसके अनन्तर अतिक्रान्त समयों में बहुतर प्रकृतियों की जो उदीरणा की जाती है, यह अल्पतर उदीरणा का लक्षण है । दोनों समयों में उतनी ही प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाले के अवस्थित उदीरणा होती है । अनुदीरणा से उदीरणा करनेवाले के अवक्तव्य उदीरणा
५४० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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