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इन छहों पतित है ।
से प्रत्येक अनन्त भाग वृद्धि आदि छह वृद्धियों के क्रम से छह स्थानों में
उक्त छह लेश्याओं में से कापोतलेश्या को द्विस्थांनिक तथा शेष लेश्याओं को द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक निर्दिष्ट करते हुए अन्त में तीव्रता व मन्दता के विषय में उनका अल्पबहुत्व दिखलाया है (धवला, पु० १६, पृ० ४८४-८९)।
इस प्रकार लेश्या अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है ।
१४. लेश्याकर्म अनुयोगद्वार
कर्म का अर्थ क्रिया या प्रवृत्ति है ! छह लेश्याओं के आश्रय से जीव की प्रवृत्ति किस प्रकार की होती है, इसका विचार इस अनुयोगद्वार में किया गया है । यथा
कृष्णलेश्या से परिणत जीव की प्रवृत्ति कैसी होती है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है। कि वह निर्दय, कलहप्रिय, वैरभाव की वासना से सहित, चोर, असत्यभाषी; मधु-मांस-मद्य में आसक्त, जिनोपदिष्ट तत्त्व के उपदेश को न सुननेवाला और असदाचरण में अडिग रहता है । आगे यथाक्रम से नील आदि अन्य लेश्याओं से परिणत जीवों की प्रवृत्ति का भी वर्णन किया गया है।
यहाँ पृथक्-पृथक् प्रत्येक लेश्यावाले जीव की प्रवृत्ति को दिखाते हुए, 'वृत्तं च' कहकर जो नौ (१+२+३+१+१+१) गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं ये 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' (५०८-१६) में उसी रूप में व उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं, सम्भवतः वहीं से लेकर इन्हें इस ग्रन्थ का अंग बनाया गया है ।
ये गाथाएँ दि० प्रा० 'पंचसंग्रह ' (१, १४४ - ५२ ) में भी उसी रूप में व उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं । इस पंचसंग्रह का रचना-काल अनिश्चित है ।
इनमें जो थोड़ा-सा पाठ भेद उपलब्ध होता है तो वह 'गो० जीवकाण्ड' और 'पंचसंग्रह' में समान है ।"
ये गाथाएँ इसके पूर्व जीवस्थान -सत्प्ररूपणा (पु० १, पृ० ३८८- ९० ) में भी लेश्या के प्रसंग में उद्धृत की जा चुकी हैं ।
१५. लेश्या - परिणाम अनुयोगद्वार
इस अनुयोगद्वार में कौन लेश्याएँ किस भाँति वृद्धि अथवा हानि को प्राप्त होकर स्वस्थान और परस्थान में परिणत होती हैं, इसे स्पष्ट किया गया है। जैसे—
कृष्णलेश्या वाला जीव संक्लेश को प्राप्त होता हुआ अन्य किसी लेश्या में परिणत नहीं होता, किन्तु स्वस्थान में ही अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियों से वृद्धिंगत होकर स्थानसंक्रमण करता हुआ स्थित रहता है । अन्य लेश्या में परिणत वह इसलिए नहीं होता; क्योंकि उससे निकृष्टतर अन्य कोई लेश्या नहीं है । वही यदि विशुद्धि को प्राप्त होता है तो अनन्तभाग हानि आदि छह हानियों से संक्लेश की हानि को प्राप्त हुआ स्वस्थान (कृष्णलेश्या) में स्थानसंक्रमण
१. जैसे -- फिण्णाए संजुओ जीवो - लक्खणमेयं तु किन्हस्स । णीलाए लेस्साए वसेण जीवो पारंभासे - लक्खणमेयं भणियं समासओ नीललेसस्स ।। इत्यादि ।
षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५५१
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