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बारह योजन आयत, नौ योजन विस्तृत, सूच्यंगुल के संख्यातवें भागमात्र बाहुल्य से सहित और जपाकुसुम के समान वर्णवाला जो शरीर क्रोध को प्राप्त बायें कन्धे से निकलकर अपने क्षेत्र के भीतर स्थित जीवों को विनष्ट करके फिर प्रविष्ट होते हुए उस संयत को भी मार डालता है, उसका नाम निःसरणात्मक अशुभ तेजसशरीर है ।
अनिःसरणात्मक तेजसशरीर खाये हुए अन्न-पान का पाचक होकर भीतर स्थित रहता है । (पु० १४, पृ० ३२८)
'तत्त्वार्थवातिक' में समुद्घात के प्रसंग में तेजस-समुद्घात के स्वरूप के निर्देश में इतना मात्र कहा गया है कि जीवों के अनुग्रह व उपघात में समर्थ ऐसे तैजसशरीर को उत्पन्न करना ही जिसका प्रयोजन होता है, उसे तैजस-समुद्घात कहते हैं।'
'बहदद्रव्यसंग्रह' की ब्रह्मदेव-विरचित टीका में उसे कुछ अधिक विकसित करते हुए स्पष्ट किया गया है। तदनुसार अपने मन के लिए अनिष्टकर किसी कारण को देखकर जिस संयमी महामनि को क्रोध उत्पन्न हुआ है उसके मूल शरीर को न छोड़कर जो सिन्दूर के समान वर्ण वाला, बारह योजन दीर्घ, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार से व नौ योजन प्रमाण अग्रविस्तार से सहित काहल के समान आकृतिवाला पुरुष बायें कन्धे से निकलकर बायीं ओर प्रदक्षिणापूर्वक हृदय में स्थित विरुद्ध वस्तु को जलाकर उस संयमी के साथ द्वीपायन मनि के समान स्वयं भी भस्मसात् हो जाता है, उसे अशुभ तेजस-समुद्घात कहा जाता है।
इसके विपरीत लोक को व्याधि व दुर्भिक्ष आदि से पीड़ित देखकर उत्तम संयम के धारक जिस महर्षि के दया का भाव उत्पन्न हुआ है, उसके मूल शरीर को न छोड़कर जो धवल वर्णवाला बारह योजन आयत तथा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग मात्र मूलविस्तार से व नो योजनप्रमाण अग्रविस्तार से सहित पुरुष दाहिने कन्धे से निकलकर दक्षिण की ओर प्रदक्षिणापूर्वक उस व्याधि व दुर्भिक्ष को नष्ट कर देता है और वापस अपने स्थान में प्रविष्ट हो जाता है, उसे शुभ तेजःसमुद्घात कहते हैं।' - धवला से यहाँ यह विशेषता रही है कि अशुभ तैजस के प्रसंग में धवला में जहाँ अपने क्षेत्र में स्थित जीवों के विनाश की स्पष्ट सूचना की गयी है, वहाँ इस 'बृहद्रव्यसंग्रह' टीका में "अपने हृदय में निहित विरुद्ध वस्तु को भस्मसात् करके" इतना मात्र कहा गया है।
शभ तैजस-समुद्घात के प्रसंग में 'बृहद्दव्यसंग्रह' टीका में 'दाहिने कन्धे से निकलने' का उल्लेख नहीं है । वह सम्भवतः प्रतिलेखक को असावधानी से लिखने में रह गया है।
शेष १८ (७ से २४) अनुयोगद्वार यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि जो 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' अविच्छिन्न श्रुतपरम्परा से आता हुआ भट्टारक धरसेन को प्राप्त हुआ और जिसे उन्होंने पूर्णरूप से आचार्य पुष्पदन्त व भूतबलि को समर्पित कर दिया, उसमें कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वार रहे हैं। रनमें से प्रस्तुत षट्खण्डागम में आ० भूतबलि ने कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन इन प्रारम्भ के ६ अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारों
१. त०वा० १,२०,१२, पृ० ५३; आगे २,४६, ८ (पृ० १०८) भी द्रष्टव्य है। २. बृहद् टीका गा०१८, पृ० २२-२३
५३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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