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और उत्सेध का प्ररूपक सूत्र है ही नहीं, यह भी नियम नहीं है; क्योंकि सूत्र में निर्दिष्ट 'हजार. योजन' यह देशामर्शक है । उससे उसके वे विष्कम्भ और उत्सेध सूचित हैं।
आगे 'स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तटपर स्थित' यह जो सूत्र में निर्दिष्ट किया गया है उसका स्पष्टीकरण है। तदनुसार अपनी बाह्य वेदिका तक स्वयम्भूरमण समुद्र है, उसके बाह्य तट से अभिप्राय उस समुद्र के आगे स्थित पृथिवीप्रदेश से है।
कुछ आचार्य यह कहते हैं कि स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट का अर्थ वहाँ पर स्थित उसकी अवयवभूत बाह्य वेदिका है, यह उसका अभिप्राय है । उनके इस कथन को असंगत बतलाते हए धवलाकार ने कहा है कि उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि आगे के सूत्र (१०) में जो उसे काकलेश्या-काक के समान वर्णवाले तनुवातवलय-से संलग्न कहा गया है उसके साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । कारण यह है कि तीनों ही वातवलय स्वयम्भूरमणसमुद्र की उस बाह्य वेदिका से सम्बद्ध नहीं हैं।
आगे प्रसंगप्राप्त अन्य शंकाओं का भी समाधान करते हुए यह पूछने पर कि स्वयम्भूरमणसमुद्र में स्थित जलचर वह महामत्स्य उसके बाह्य तट पर कैसे पहुँचा, धवलाकार ने कहा है कि पूर्व भव के वैरी किसी देव के प्रयोग से वहां उसका पहुँचना सम्भव है (पु० ११, पृ० १५-१८)। ___ आगे सूत्रोक्त उसकी अन्य विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए प्रसंगवश यह शंका की गयी है कि उसे सातवीं पृथिवी में न उत्पन्न कराकर सात राजुमात्र अध्वान जाकर नीचे निगोदों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया। समाधान में धवलाकार ने कहा है कि निगोदों में उत्पन्न होने पर अतिशय तीव्र वेदना के अभाव में उसके शरीर से तिगुणा वेदनासमुद्घात सम्भव नहीं है।
इसी प्रसंग में आगे यह पूछने पर कि सूक्ष्म निगोदों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य का विष्कम्भ और उत्सेध तिगुणा नहीं होता है, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने इतना मात्र कहा है कि वह 'नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में अनन्तर समय में उत्पन्न होगा' इस सूत्र (४,२,५,१२) से जाना जाता है ।
धवला में आगे यहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोदों में उत्पन्न कराया गया है । पर यह योग्य नहीं है, क्योंकि तीव्र असाता से युक्त सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य की वेदना और कषाय से सूक्ष्म निगोदों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य की वेदना और कषाय में समानता नहीं हो सकती। इसलिए इसी अर्थ को प्रधान रूप में ग्रहण करना चाहिए। मानावरणीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना
ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्र में कहा गया है कि उसकी उत्कृष्ट क्षेत्रवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना है (सूत्र ४,२,५,१३)।
इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने यह कहकर कि अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना के विकल्प असंख्यात हैं, उसकी विवेचना की है।
इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि इन क्षेत्रविकल्पों के स्वामी जो जीव हैं उनकी प्ररूपणा में ये छह अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहत्व । इनके आश्रय से उनकी क्रम से प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने श्रेणि और अवहार इन दो अनुयोगद्वारों के प्रसंग में यह स्पष्ट कर दिया है कि उनकी प्ररूपणा करना शक्य नहीं
षट्खण्डागम पर टीकाएं /४८७
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