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४. योगमार्गणा – यह चौथी मार्गणा है । इसके प्रसंग में प्रथमतः मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी इन तीन सयोगियों और तत्पश्चात् अयोगियों के अस्तित्व को प्रकट करके आगे मनोयोग के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--सत्य मनोयोग, मृषा मनोयोग, सत्य- मृषा मनोयोग और असत्य - मृषा मनोयोग । आगे इसमें कौन मनोयोग किस गुणस्थान तक होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सामान्य से मनोयोग, सत्य मनोयोग और असत्य - मृषा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तथा मृषा मनोयोग और सत्य- मृषा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छदमस्थ तक होते हैं (४७-५१) ।
यहाँ क्षीणकषाय गुणस्थान तक जो मृषा मनोयोग और सत्य - मृषा मनयोग का सद्भाव बतलाया गया है वह विपर्यय और अनध्यवसाय रूप अज्ञान के कारण मन के सद्भाव के कारण बतलाया गया है ।"
मनोयोग के समान वचनयोग भी चार प्रकार का - सत्य वचनयोग, मृषा वचनयोग, सत्य-मृषा वचनयोग और असत्य - मृषा वचनयोग । इनमें सामान्य वचनयोग और असत्य मृषा वचनयोग द्वीन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक, सत्य वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयौगिकेवली तक तथा मृषा वचनयोग और सत्यमृषा वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ तक होते हैं (५२-५५) ।
मृषा और सत्यमृषा वचनयोगों का सद्भाव जो क्षीणकषाय गुणस्थान तक निर्दिष्ट किया गया है वह असत्य वचनयोग के कारणभूत अज्ञान के विद्यमान रहने के कारण निर्दिष्ट किया गया है । "
काययोग औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण के भेद से सात प्रकार का है। इनमें औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग तिर्यंच व मनुष्यों के, वैऋियिक और वैक्रियिकमिश्र काययोग देवों व नारकियों के, आहारक और आहारकमिश्र काययोग ऋद्धिप्राप्त संयतों के तथा कार्मण काययोग विग्रहगति में वर्तमान जीवों के और समुद्घातगत केवलियों के होता है (५६-६० ) ।
उपर्युक्त सात काययोगों में सामान्य काययोग के साथ औदारिक और औदारिकमिश्र ये दो काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक, वैक्रियिक व वैक्रियिकमिश्र ये दो संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक, आहारक व आहारकमिश्र ये दो काययोग एकमात्र प्रमत्तसंयत गुणस्थान में, और कार्मण काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है । यह सामान्य कथन है । विशेष रूप में इसका अभिप्राय यह समझना चाहिए कि जिन संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में अपर्याप्तता सम्भव नहीं है वहाँ कार्मण काययोग नहीं होता । इसी प्रकार समुद्घात को छोड़कर पर्याप्तों के वह नहीं होता (६१-६४) ।
संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक मन, वचन व काय तीनों योग होते हैं । वचनयोग व काययोग द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं । काययोग एकेन्द्रिय जीवों के होता है । मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तक जीवों के होते हैं, अपर्याप्तकों के वे नहीं
१. देखिए सूत्र १,१, ५१ की टीका, धवला पु० १, पृ० २८५-८६ २. सूत्र १,१,५५ की टीका, धवला पु० १, पृ० २८६
४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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