________________
के समान इस अनुयोगद्वार में अल्पबहुत्व विषयक प्ररूपणा भी दोनों ग्रन्थों में समान है ।
यथा --
"अप्पा बहुगागमेण दुविहो णिद्द ेस्सो -- श्रोषेण आदेसेण य । ओघेण तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेय । खवा संखेज्जगुणा । atraसावीद रागछ्दुमत्था तत्तिया चेव । सजोगकेवली अजोगकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा । " - ष ० ख०, सूत्र १,८,१-७
“अल्पबहुत्वमुपवर्ण्यते । तद् द्विविधम्--- सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् त्रय उपशमकाः सर्वतः स्तोकाः स्वगुणस्थानकालेषु प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । उपशान्तकषायास्तावन्त एव । त्रयः क्षपकाः संख्येयगुणाः । क्षीणकषायवीत रागच्छद्म स्थास्तावन्त एव । सयोगकेवलिनोsयोगकेवलिनश्च प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । सयोगकेवलिनः स्वकालेन समुदिताः संख्येयगुणाः ।” -- स०सि० पृ० ५२
दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार से इस प्रल्पबहुत्व की प्ररूपणा आगे अप्रमत्त प्रमत्तादि शेष गुणस्थानों में ओघ (सामान्य) की अपेक्षा और गत्यादि मार्गणाओं में आदेश (विशेष) की अपेक्षा समान रूप में की गई है । विशेष इतना है कि ष० ख० में ओघप्ररूपणा के प्रसंग में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संयतासंयत गुणस्थान व प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थानों आदि में उपशम सम्यग्दृष्टियों आदि के अल्पबहुत्व को भी पृथक् से दिखलाया गया है (सूत्र १, ८, १५-२६)। उसकी प्ररूपणा स० सि० में पृथक् से नहीं की गई है। ऐसी ही कुछ विशेषता मार्गणाओं के प्रसंग में भी रही है ।
अन्य कुछ उदाहरण
१. ष० ख० में जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में सम्यक्त्व मार्गणा के प्रसंग में नारकी असंयत सम्यग्दृष्टियों में कौन-कौन से सम्यग्दर्शन सम्भव हैं, इसका विचार करते हुए कहा गया है कि सामान्य से असंयत सम्यग्दृष्टि नारकियों के क्षायिक सम्यक्त्व वेदक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यक्त्व ये तीनों सम्भव हैं । यह प्रथम पृथिवी को लक्ष्य में रखकर कहा गया है, आगे द्वितीयादि छह पृथिवियों के असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियों में क्षायिक सम्यक्त्व का निषेध कर दिया गया है । '
इसके पूर्व योगमार्गणा के प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि नारकियों के पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान सम्भव हैं । यह प्रथम पृथिवी के नारकियों को लक्ष्य में रखकर कहा गया है । आगे द्वितीयादि पृथिवियों के नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का प्रतिषेध है ।"
स० सि० में सम्यग्दर्शन को उदाहरण बनाकर 'निर्देश - स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थितिविधानत:' इस सूत्र ( त० सूत्र १-७) की व्याख्या की गई है । वहाँ स्वामित्व के प्रसंग में कहा गया है कि गति के अनुवाद से नरकगति में सब पृथिवियों में पर्याप्त नारकियों के औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सम्भव हैं । किन्तु प्रथम पृथिवी के नारकियों में पर्याप्तकों और
१. सूत्र १,१, १५३-५५
२. सूत्र १,१,७६-८२
२०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org