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दोनों ग्रन्थगत तद्विषयक समानता को प्रकट करने के लिए यहाँ यह उदाहरण दिया जाता है--षट्खण्डागम में कायमार्गणा के प्रसंग में वनस्पतिकायिक जीवों के भेद-प्रभेदों का उल्लेख इस प्रकार से है
"वणप्फइकाइया दुविहा–पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा । पत्तेयसरीरा दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता। साधारणसरीरा दुविहा-बादरा सुहुमा । बादरा दुविहा—पज्जत्ता अपज्जत्ता । सुहमा दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ।"
--सूत्र १,१,४१ प्रज्ञापना में एकेन्द्रियजीवप्रज्ञापना के प्रसंग में इन भेदों का निर्देश इस प्रकार किया गया है___'से किं तं वणस्स इकाइया? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—सुहुमवणस्सइकाइया य बादर-वणस्सतिकाइया य । से किं तं सुहुमवणस्सइकाइया ? सुहुमवण्णस्सइकाइया दुविहा पन्नत्ता । तं जहा–पज्जत्तसुहुमवणस्सइकाइया य अपज्जत्तसुहुमवणस्सइकाइया य । से तं सुहमवणस्सइकाइया। से किं तं बादर-वणस्सइकाइया ? बादरवणप्फइकाइया दुविहा पण्णता। तं जहा-पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया य साहारणसरीर-बादरवणप्फइकाइया य । से किं तं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया ? पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया दुवालसविहा पन्नता।" तं जहा
रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पव्वगा चेय। तण वलय हरिय ओसहि जलरुह कुहणा य बोधव्वा ॥
--प्रज्ञापना सूत्र ३५-३८, गाथा १२ आगे प्रसंगप्राप्त इन बारह बादर प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीवभेदों को स्पष्ट करके (सूत्र ३६-५३) तत्पश्चात् साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। (सू०५४-५५ गाथा ४७-१०६)
- इस प्रकार षट्खण्डागम में वनस्पतिकायिक जीवों के जिन प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, पर्याप्त-अपर्याप्त और बादर-सूक्ष्म भेदों का निर्देश किया गया है वे प्रज्ञापना में निर्दिष्ट उपर्युक्त भेदों के अन्तर्गत हैं । पर प्रज्ञापना में उन प्रत्येक व साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवों के जिन अनेक जातिभेदों का उल्लेख है वह षटखण्डागम में नहीं मिलता है। सम्भवतः प्रज्ञापनाकार द्वारा उन्हें पीछे विकसित किया गया है। उन भेदों का अधिकांश उल्लेख गाथाओं में ही किया गया है।
सम्भवतः उपर्युक्त वे सब भेद नियुक्तियों में भी नहीं निर्दिष्ट किये गये । उदाहरण के रूप में प्राचारांगनियुक्ति को लिया जा सकता है। उसमें ये दो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं -
रुक्खा गुच्छा गुम्मा लया य वल्ली य पव्वगा चेव । तण वलय हरित ओसहि जलरुह कुहणा य बोद्धव्वा ॥ अग्गबीया मूलबीया सांधबीयां चेव पोरबीयाय । बीयरहा सम्मुच्छिम समासओ वयस्सई जीवा ॥
--आचा०नि० १२९-३० इनमें प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकों के बारह भेदों की निर्देशक प्रथम गाथा प्रज्ञापना (गा० १२) में उपलब्ध होती है, यह पहिले कहा जा चुका है । पर आगे प्रज्ञापना में जिन अन्य गाथाओं (१३-४७) के द्वारा उन बारह भेदों के अन्तर्गत अन्य भेद-प्रभेदों का २३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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