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गति - आगति से है । इस प्रकार उनमें गति आगति नामक नौवीं चूलिका की सूचना प्राप्त है । जीवों की यह गति-आगति कर्मप्रकृतियों के बन्ध आदि पर निर्भर है, इसलिए प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थान समुत्कीर्तन इन दो ( प्रथम व द्वितीय) चूलिकाओं में जो कर्मप्रकृतियों के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा है, वह आवश्यक हो जाती है। उक्त प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन का सम्बन्ध कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति से है, अतएव छठी 'उत्कृष्टस्थिति' और सातवीं 'जघन्यस्थिति' इन दो चूलिकाओं द्वारा क्रम से कर्मप्रकृतियों की उत्कष्ट और जघन्य स्थिति का प्ररूपण है ।
कालानुगम में सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्ततन प्रमाण कहा गया है ।" वह प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण का सूचक है, अन्यथा वह मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्टकाल घटित नहीं होता। इसके लिए 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' नामक आठवीं चूलिका का अवतार हुआ है। प्रथम सस्यवत्व के ग्रहण से सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीवों के द्वारा बाँधी जाने वाली कर्मप्रकृतियों के प्ररूपक तीन महादण्डकों-तीसरी, चौथी व पांचवीं चूलिकाओं की सूचना मिलती है। साथ ही, सम्यक्त्व प्राप्त करनेवाले जीव का अर्धपुदगल परिवर्तन से अधिक चूंकि संसार में रहना असम्भव है, अतः मोक्ष की सूचना भी उसी से प्राप्त होती है । चूंकि मोक्ष दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय के क्षय के बिना सम्भव नहीं है, अतः उनके क्षय की विधि की प्ररूपणा आवश्यक हो जाती है, जो उसी 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' नामक आठवीं चूलिका में की गयी । इस प्रकार नौ चूलिकाओं में विभक्त इस 'चूलिका' प्रकरण को जीवस्थान के अन्तर्गत इन आठ अनुयोगद्वारों से भिन्न नहीं कहा जा सकता है। पूर्व में सूत्रकार के द्वारा उठाये गये जिन प्रश्नों का निर्देश किया गया है उनसे भी इन चूलिकाओं की सूचना प्राप्त होती है ।
यथा---
प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव 'कितनी प्रकृतियों को बाँधता है, इस प्रश्न के समाधान में प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन इन दो चूलिकाओं की प्ररूपणा की गयी है । वह 'किन प्रकृतियों को बांधता है' इसे स्पष्ट करने के लिए प्रथम (३), द्वितीय ( ४ ) और तृतीय ( ५ ) इन तीन महादण्डकों (चूलिकाओं) की प्ररूपणा है । 'कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है अथवा नहीं करता है' इसके समाधान हेतु उत्कृष्ट और जघन्यस्थिति की प्ररूपक दो चूलिकाएँ ( ६ व ७ ) दी हैं। 'कितने काल में व मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है तथा उपशामन व क्षपणा कहाँ किसके समक्ष होती है', इनका स्पष्टीकरण आठवीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका में किया है। सूत्र में प्रयुक्त 'वा' शब्द की सफलता में 'गति - आगति' चूलिका (६) की प्ररूपणा है ( पु० ६, पृ० १०४) ।
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन-उन नौ चूलिकाओं 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' प्रथम चूलिका है। इसमें सूत्रकार द्वारा प्रथमतः आठ मूलप्रकृतियों के नामों का और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनके उत्तरभेदों के नामों का निर्देश मात्र किया गया है। उनके स्वरूप आदि का स्पष्टीकरण धवला में किया गया है । ज्ञानावरणीय के पांच उत्तरभेदों के प्रसंग में धवलाकार ने उनके द्वारा क्रम से आयमाण आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञानों व उनके अवान्तर भेदों के स्वरूप आदि के विषय में विस्तार से विचार किया है। इसी प्रकार नामकर्म के भेदों के प्रसंग में भी धवलाकार द्वारा
१. उवकस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । --- -सूत्र १, ५, ४ ( पु०४)
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षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४२६
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