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पूर्वोक्त बन्ध-कारणों में से मिथ्यात्व तो उसके बन्ध का कारण हो नहीं सकता है, क्योंकि मिथ्यात्व अवस्था में उसका बन्ध नहीं पाया जाता है। असंयम भी उसके बन्ध का कारण सम्भव नहीं, क्योंकि संयतों में भी उसका बन्ध देखा जाता है। इसी प्रकार से आगे धवला में कषायसामान्य, उसकी तीव्रता-मन्दता और सम्यक्त्व आदि को भी उसके बन्ध के कारण न हो सकने को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार चूँकि युक्तिबल से प्रकृत तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के प्रत्यय का ज्ञान नहीं होता है, इसीलिए सूत्रों में उसके बन्धक प्रत्ययों का उल्लेख है।
उपर्यत शंका के समाधान में धवलाकार ने प्रकारान्तर से यह भी कहा है कि जिस प्रकार असंयत, प्रमत्त और सयोगी ये गुणस्थाननाम अन्तदीपक हैं उसी प्रकार यह सूत्र भी अन्तदीपक के रूप में सब कर्मों के बन्धक प्रत्ययों की प्ररूपणा में आया है
'तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्मं बंधति ।'.-सूत्र ४०
इसमें की गयी सोलह कारणों के कथन की सूचना के अनुसार सूत्रकार द्वारा अगले सूत्र ४१ में तीर्थकर प्रकृति के बन्धक 'दर्शनविशुद्धता' आदि सोलह कारणों का उल्लेख भी कर दिया गया है।
पूर्व पृच्छासूत्र (३६) में यह पूछा गया था कि कितने कारणों से जीव तीर्थकर नामगोत्रकर्म को बांधते हैं। उत्तर में 'जीव इन कारणों से उस तीर्थकर नामगोत्रकर्म को बाँधते हैं' इतना कहना पर्याप्त था। पर सूत्र के प्रारम्भ में 'तत्थ' पद का भी उपयोग किया गया है। उसकी अनपयोगिता की आशंका को हृदयंगम करते हए धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि सत्र में तत्थ' शब्द यह अभिप्राय प्रकट करता है कि मनुष्यगति में ही तीर्थकर कर्म का बन्ध होता है, अन्य में नहीं। अन्य गतियों में उसका बन्ध क्यों नहीं होता, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि
कर्म के बन्ध के प्रारम्भ करने में सहकारी केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, क्योंकि उसके बिना उसकी उत्पत्ति का विरोध है। __ प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है-अथवा उनमें तीर्थकर नामकर्म के कारणों को कहता हूँ, यह उस 'तत्थ' शब्द से अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए (पु०८, पृ० ७८)।
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि प्रसंगप्राप्त इन सूत्रों (३८-४०) में 'तीर्थकरनाम' के साथ 'गोत्र' का भी प्रयोग हुआ है।
यहाँ पुनः यह शंका उठी है कि नामकर्म के अवयवस्वरूप 'तीर्थकर' की 'गोत्र' संज्ञा कैस हो सकती है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि तीर्थकर कर्म चूँकि उच्चगोत्र के बन्ध का अविनाभावी है, इसलिए 'तीर्थकर' के गोत्ररूपता सिद्ध है (१०८, १०७६)।
धवला में यह भी उल्लेख है कि सूत्र (४०) में शब्द 'सोलह' से जो तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारणों की संख्या का निर्देश किया है वह पर्यायाथिकनय की प्रधानता से है। द्रव्याथिकनय का अवलम्बन लेने पर उसके बन्ध का कारण एक भी हो सकता है, दो भी हो सकते हैं; इसलिए उसके बन्ध के कारण सोलह ही हैं ऐसा अवधारण नहीं करें (पु० ८, पृ० ७८-७९)।
धवलाकार ने सूत्र निदिष्ट इन सोलह कारणों में से दर्शनविशुद्धता आदि प्रत्येक को तीर्थकर कर्म के बन्ध का कारण सिद्ध किया है। यथा-दर्शन का अर्थ सम्यग्दर्शन है, उसकी विशुद्धता से जीव तीर्थकर कर्म बाँधते हैं। तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित सम्यग्दर्शन परिणाम का नाम दर्शनविशुद्धता है।
यहाँ यह शका की गयी है कि एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थकर कर्म का बन्ध कैसे हो
षट्झण्डागम पर टीकाएं / ४५७
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