________________
अनेमेत्यनुगमः । अर्थात् जिसके द्वारा जीवादिक पदार्थ जाने जाते हैं उसका नाम अनुगम है। इस निरुक्ति के अनुसार 'अनुगम' से प्रमाण विवक्षित रहा है । इस 'प्रमाण' से भी यहाँ निर्बाध संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय से रहित-बोध से युक्त आत्मा का अभिप्राय रहा है।
यहां यह शंका उत्पन्न हुई कि ज्ञान को ही प्रमाण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि 'जानाति परिछिनत्ति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानम् आत्मा' इस निरुक्ति के अनुसार ज्ञानस्वरूप आत्मा को ही प्रमाण माना गया है । स्थिति से रहित उत्पादव्ययस्वरूप ज्ञानपर्याय को प्रमाण नहीं माना जा सकता है। कारण यह है कि उत्पाद, व्यय और स्थिति इन तीन लक्षणों के अभाव में उसमें अवस्तुरूपता है, अतः उसमें परिच्छेदनरूप अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त स्थिति के बिना स्मृति-प्रत्यभिज्ञानादि के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है (पु० ६, पृ० १४१-४२)।
प्रमाण के प्रसंग में यहाँ उसके मूल में प्रत्यक्ष और परोक्ष इन भेदों का निर्देश है। इनमें प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-सकलप्रत्यक्ष और विकलप्रत्यक्ष । इनमें केवलज्ञान को सकलप्रत्यक्ष और अवधि व मनःपर्ययज्ञान को विकलप्रत्यक्ष कहा गया है (पृ० १४२-४३)।
इस प्रकार संक्षेप में प्रत्यक्ष प्रमाण का स्वरूप दिखलाकर परोक्ष के भेदभूत मति और श्रुत इन दो ज्ञानों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है।
तीसरे विकल्प के रूप में पूर्वोक्त अनुगम का स्वरूप प्रकट करते हुए धवला में यह भी कहा गया है 'अथवा अनुगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इत्यनुगमाः षड्द्रव्याणि' । इस निरुक्ति के अनुसार, जो जाने जाते हैं उन ज्ञान के विषयभूत छह द्रव्य अनुगम कहे जाते हैं (पु० ६, पृ० १६२)।
नयविवरण
पर्वनिर्दिष्ट ग्रन्थावतार के इन चार भेदों में उपक्रम, निक्षेप और अनुगम इन तीन भेदों की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् उनके चौथे भेदभूत नय की प्ररूपणा भी धवला में विस्तार से हई है (पु० ६, पृ० १६२-८३)।
यहां प्रारम्भ में लघीयस्त्रय की 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः युक्तितोऽर्थपरिग्रहः' इस कारिका (५२) को लक्ष्य में रखकर तदनुसार धवलाकार ने ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है। आगे इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने उक्त कारिका के अन्तर्गत 'युक्तितोऽर्थपरिग्रहः' इस अंश को लेकर उसमें 'यक्ति' का अर्थ प्रमाण करके 'अर्थ' से उन्होंने परिपूर्ण वस्तु के अंशभूत द्रव्य और पर्याय में से विवक्षा के अनुसार किसी एक को ग्रहण किया है । तदनुसार, वक्ता के अभिप्राय के अनसार प्रमाण की विषयभूत द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु के इन दोनों अंशों में से जो एक को प्रमुखता से ग्रहण किया जाता है उसे नय कहते हैं।
इसी प्रसंग में धवलाकार ने यह कहा है कि कितने ही विद्वान् प्रमाण को ही नय कहते हैं । पर उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि वैसा होने पर नयों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। और नयों का अभाव होना सम्भव नहीं है, अन्यथा लोक में एकान्त का जो समस्त व्यवहार देखा जाता है वह लुप्त हो जाएगा।
दूसरे, प्रमाण को नय इसलिए भी नहीं कहा जा सकता है कि उसका विषय अनेकात्मक वस्त है, जबकि नय का विषय एकान्त है। इसी विषयभेद के कारण नय को प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त प्रमाण केवल विधि को ही विषय नहीं करता है, क्योंकि
षट्सण्डागर्म पर टीकाएँ / ४६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org