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के अध्ययन से सामान्य कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु प्रकृत मंगल के द्वारा उस सूत्र के अध्ययन में विघ्नों को उत्पन्न करनेवाले विशेष कर्मों का विनाश होता है । इस प्रकार दोनों का भिन्न विषय होने से उस मंगलसूत्र को निष्फल नहीं कहा जा सकता।
इस पर शंकाकार कहता है कि वैसी परिस्थितियों में भी मंगलसूत्र का प्रारम्भ करना निरर्थक ही रहता है, क्योंकि सूत्र के अध्ययन में विघ्नों को उत्पन्न करनेवाले उन विशेष कर्मों का विनाश भी सामान्य कर्मों के विरोधी उसी सूत्र के अभ्यास से सम्भव है। इसके उत्तर में धवला में कहा है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि सूत्र एवं अर्थ के ज्ञान तथा उसके अभ्यास में विध्न उत्पन्न करनेवाले कर्म जब तक नष्ट नहीं होंगे तब तक सूत्रार्थ का ज्ञान और अभ्यास ही सम्भव नहीं है।
एक अन्य शंका यह भी की गयी कि यदि जिनेन्द्रनमस्कार सूत्र के अध्ययन में आनेवाले विघ्नों का ही विनाश करता है तो जीवित के अन्त में-मरण के समय-उसे नहीं करना चाहिए? इसके परिहार में वहाँ कहा गया है वह जिनन्द्रनमस्कार केवल विघ्नोत्पादक कर्मों का ही विनाश करता है, ऐसा नियम नहीं है। वह ज्ञान-चारित्र आदि अनेक सहकारी कारणों की सहायता से अनेक कार्यों को कर सकता है । अतः इसमे कुछ विरोध नहीं है। अपने उक्त अभिप्राय की पुष्टि में धवलाकार ने 'उक्तं च' सूचना के साथ इस पद्य को भी उद्धृत किया है
एसो पंचणमोक्कारो सम्वपावप्पणासओ।
मंगलेसु अ सव्वेसु पढम होदि मंगलं ।। [मूला० ७-१३] और भी अनेक शंका-प्रतिशंकाओं का समाधान करते हुए धवलाकार ने विकल्प के रूप में यह भी कहा है - अथवा सूत्र का अभ्यास मोक्ष के लिए किया जाता है। वह मोक्ष कर्मनिर्जरा से होता है और यह कर्मनिर्जरा भी ज्ञान के अविनाभावी ध्यान और चिन्तन से होती है, तथा वह ध्यान और चिन्तन सम्यक्त्व के आश्रय से होता है । क्योंकि सम्यक्त्व से रहित ज्ञान और ध्यान असंख्यातगणितश्रेणि निर्जरा के कारण नहीं हो सकते । सम्यक्त्व से रहित ज्ञान और ध्यान को यथार्थ में ज्ञान और ध्यान ही नहीं कहा जा सकता है, इसीलिए सम्यग्दृष्टि को सम्यग्दष्टियों के लिए ही सूत्र का व्याख्यान करना चाहिए । इस सबका परिज्ञान कराने के लिए यहाँ जिननमस्कार किया गया है (पु० ६, पृ० २-६) । 'जिन' विषयक निक्षेपार्थ
आगे धवला में अप्रकृत के निराकरणपूर्वक प्रकृत अर्थ की प्ररूपणा के लिए 'जिन' के विषय में निक्षेप कर जिन के चार भेद निर्दिष्ट किये हैं-नामजिन, स्थापनाजिन, द्रव्यजिन और भावजिन । धवला में इनके अवान्तरभेदों और स्वरूप का भी निर्देश है । पश्चात् वहाँ इन सब जिनों में से किसे नमस्कार किया गया है, इसे बतलाते हुए कहा है कि यहाँ तत्परिणत भावजिन और स्थापनाजिन को नमस्कार किया गया है।
इस प्रसंग में भावजिन के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-आगमभावजिन और नोआगमभावजिन । इनमें जो जिनप्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग से युक्त होता है उसे आगमभावजिन कहा जाता है । नोआगमभावजिन उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है। जिनस्वरूप के ज्ञापक ज्ञान में जो उपयुक्त होता है वह उपयुक्तभावजिन कहलाता है तथा जो जिनपर्याय से परिणत होता है उसे तत्परिणत भावजिन कहा जाता है।
पदसण्डागम पर टीकाएं | ४५६
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