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का उल्लेख है, पर अभिप्राय उसका यह रहा है कि उन कर्मभूमियों में उत्पन्न मनुष्य ही उसकी क्षपणा प्रारम्भ करते हैं, न कि तिथंच ।
सूत्र में निर्दिष्ट 'जम्हि जिणा' को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस काल में 'जिनों' की सम्भावना है उसी काल में जीव उसकी क्षपणा का प्रारम्भक होता है, अन्य काल में नहीं। तदनुसार यहाँ दुःषमा, दुःषम-दुःषमा, सुषम-सुषमा, सुषमा और सुषमदुःषमा इन कालों में उस दर्शनमोहनीय की क्षपणा का निषेध किया गया है ।
यहाँ धवलाकार ने सूत्रोक्त जिन, केवली और तीर्थकर इन शब्दों की सफलता को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि सूत्र में देशजिनों के प्रतिषेध के लिए केवली को ग्रहण किया गया है तथा तीर्थंकर कर्म के उदय के रहित केवलियों के प्रतिरोध के लिए 'तीर्थंकर' को ग्रहण किया गया है। कारण उसका यह दिया गया है कि तीर्थकर के पादमूल में जीव दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ किया करता है, अन्यत्र नहीं।
आगे 'अथवा' कहकर प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है कि 'जिनों' से चौदह पूर्वी के धारकों. 'केवली' से तीर्थकर कर्म के उदय से रहित केवलज्ञानियों को और 'तीर्थकर' से तीर्थकर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए आठ प्रतिहार्यों व चौंतीस अतिशयों से रहित जिनेन्द्रों को ग्रहण करना चाहिए । इन तीनों के भी पादमूल में जीव दर्शनमोह को क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं। ___ इस प्रसंग में अन्य किन्हीं आचार्यों के व्याख्यान को प्रकट करते हुए धवला में यह भी कहा गया है कि यहाँ सूत्र में प्रयुक्त 'जिन' शब्द की पुनरावृत्ति करके जिन दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं, ऐसा कहना चाहिए, अन्यथा तीसरी पृथिवी से निकले हुए कृष्ण आदि के तीर्थंकरपना नहीं बन सकता है,' ऐसा किन्हीं आचार्यों का व्याख्यान है। इस व्याख्यान के अभिप्रायानुसार दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन कालों में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह की क्षपणा सम्भव ही नहीं है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रियों में से आकर तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्धनकुमार आदि के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है। इसी व्याख्या को यहाँ प्रधान करना चाहिए। (धवला पु० ६, पृ० ३४३-४७)
उपयुक्त दर्शनमोह की क्षपणा की समाप्ति चारों ही गतियों में सम्भव है। इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि कृतकरणीय होने के प्रथम समय में दर्शनमोह की क्षपणा करनेवाले जीव को निष्ठापक कहा जाता है । वह आयुबन्ध के वश चारों ही गतियों में उत्पन्न होकर दर्शनमोह को क्षपणा को समाप्त करता है । कारण यह है कि उन गतियों में उत्पत्ति के कारणभूत लेश्यारूप परिणामों के होने में वहाँ किसी प्रकार का विरोध नहीं है ।
अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में सम्यक्त्वमोह की अन्तिम फालि के द्रव्य को नीचे के निषेकों में क्षेपण करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक कृतक रणीय कहलाता है।
दर्शमोह की क्षपणा की विधि उसकी उपशामनाविधि के प्रायः समान है, मूल में उसकी
१. इत्यादिशुभचिन्तात्मा भविष्यत्तीर्थकद्धरिः।
बद्धायुष्कतया मृत्वा तृतीयां पृथिवीमितः ।।-हरि० पु०, ६२-६३ २. वर्धनकुमार का उल्लेख इसके पूर्व धवला में अनादि सपर्यवसितकाल के प्रसंग में भी किया
गया है । पु० ४, पृ० २२४
४४० / षड्खण्डागम -परिशीलन
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