________________
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के भेद से चार प्रकार का है। इनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकार है-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । इनमें मूलप्रकृतिबन्ध भी दो प्रकार का हैएक-एक मूलप्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढमूलप्र कृतिबन्ध । अव्वोगाढमूलप्रकृतिबन्ध भी भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध के भेद से दो प्रकार का है । उतरप्रकृतिबन्ध के 'समुत्कीर्तना' आदि चौबीस अनुयोगद्वार हैं। उनमें एक बारहवाँ 'बन्धस्वामित्वविचय' नाम का अनुयोगद्वार है।' उसी का 'बन्धस्वामित्वविचय' यह नाम है । यह उपर्युक्त 'बन्धन' अनुयोगद्वार के बन्धविधान नामक चौथे अनुयोगद्वार से निकला है, जो प्रवाहस्वरूप से अनादिनिधन है (पु० ८, पृ० १-२)।
बन्धस्वामित्वविचय नाम से ही ज्ञात हो जाता है कि इसमें बन्धक के स्वामियों का विचार किया गया है।
यहाँ प्रारम्भ में मूलग्रन्थकार ने मिथ्यादृष्टि आदि चौदह जीवसमासों (गुणस्थानों) के नामनिर्देशपूर्वक उनमें प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद के कथन करने की प्रतिज्ञा है (सूत्र ४)।
इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि यदि इसमें प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद की ही प्ररूपणा करना ग्रन्थकार को अभीप्ट रहा है तो उसकी 'बन्धस्वामित्वविचय' यह संज्ञा घटित नहीं होती है । समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योकि इस गुणस्थान में इन प्रकृतियों का बन्धव्युच्छेद होता है, ऐसा कहने पर उससे नीचे के गुणस्थान उन प्रकृतियों के बन्ध के स्वामी हैं, यह स्वयं सिद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त व्युच्छेद दो प्रकार का है.. उत्पादानच्छेद और अनत्पादानच्छेद । उत्पाद का अर्थ सत्त्व तथा अनुच्छेद का अर्थ विनाश या अभाव है । अभिप्राय यह कि भाव ही अभाव है, भाव को छोड़कर अभाव नाम की कोई वस्त नहीं है। यह व्यवहार द्रव्याथिक नय के आश्रित है। इस प्रकार उक्त उत्पादानच्छेद से यह भी सिद्ध है कि जिस गुणस्थान में विवक्षित प्रकृतियो के बन्ध का व्युच्छेद कहा गया है उसके नीचे के गुणस्थानों में उनका बन्ध होता है । इस प्रकार उनके उक्त प्रकृतियो के बन्ध का स्वामित्व सिद्ध है । अत: इस खण्ड का 'बन्धस्वामित्वविचय' नाम सार्थक है (धवला पु०८, पृ० ५-७)। ___ आगे धवला में 'पाँच ज्ञानावरणीय आदि सोलह प्रकृयियों का कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है' इस पृच्छासूत्र (५) की व्याख्या में कहा है कि यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है। इसलिए (१) क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (२) क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (३) क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, (४) क्या उनका बन्ध स्वोदय से होता है, (५) क्या वह परोदय से होता है, (६) क्या स्व-परोदय से होता है, (७) क्या सान्तर बन्ध होता है, (८) क्या निरन्तर बन्ध होता है, (६) क्या सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, (१०) क्या सकारण बन्ध होता है, (११) क्या अकारण वन्ध होता है, (१२) क्या गतिसंयुक्त बन्ध होता है, (१३) क्या गतिसंयोग से रहित बन्ध होता है, (१४) कितनी गतियोंवाले उनके बन्ध के स्वामी हैं. (१५) कितनी गतियोंवाले बन्ध के स्वामी नहीं हैं, (१६) बन्धाध्वान कितना है, (१७) क्या उनका बन्ध अन्तिम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१८) क्या प्रथम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१६) क्या अप्रथम-अचरम समय में व्युच्छिन्न होता है, (२०) क्या बन्ध सादि है, (२१) क्या
१. इसकी चर्चा इसके पूर्व धवला पु० १, पृ० १२३-२६ में विस्तार से की जा चुकी है। विशेष के लिए इसी पुस्तक की प्रस्तावना (पृ० ७१-७४) द्रष्टव्य है ।
षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४५३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org