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यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि यदि उक्त मिथ्यात्व आदि चार को ही बन्ध का कारण माना जाता है तो 'ओदइया बंधयरा' गाथासूत्र के साथ विरोध का प्रसंग आता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि औदयिक भावबन्ध के कारण हैं-इस कथन में सभी औदयिक भावों का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वैसा होने पर अन्य भी जो गति-इन्द्रिय आदि औदयिक भाव हैं उनके भी बन्धकारण होने का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए 'जिसके अन्वय-व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है' इस न्याय के अनुसार जिन मिथ्यात्व आदि औदयिक भावों का अन्वय-व्यतिरेक बन्ध के साथ सम्भव है वे ही बन्ध के कारण सिद्ध होते हैं, न कि सभी औदयिक भाव । उक्त मिथ्यात्व आदि चार को बन्ध का कारण मानने में गाथासूत्र के साथ विरोध नहीं है।
धवला में आगे जिन प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क के उदय से तथा प्रमाद आदि के निमित्त से हुआ करता है उनका यथाक्रम से पृथक्-पृथक् विचार किया गया है। यहाँ प्रसंगप्राप्त प्रमाद के लक्षण का निर्देश करते हुए चार संज्वलन और नौ नोकषायों में तीव्र उदय को प्रमाद कहा है। तदनुसार उस प्रमाद को उपर्युक्त मिथ्यात्वादि चार कारणों में से कषाय के अन्तर्गत निर्दिष्ट किया गया है। ___ आगे धवला में जिस-जिस कर्म के क्षय से जो-जो गुण सिद्धों के उत्पन्न होता है, उसका उल्लेख नौ गाथाओं को उद्धत कर उनके आधार से किया गया है।'
उदाहरणपूर्वक नयों का लक्षण --- 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार में 'नरकगति में नारकी कैसे होता है' इस पृच्छासूत्र (२,१,४) को नयनिमित्तक वतलाकर धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त नयों का स्वरूप बताया है। इसके लिए छह गाथाएँ धवला में उद्धृत की गयी हैं (संग्रहनय से सम्बद्ध गाथा वहाँ त्रुटित हो गयी दिखती है), जिनके आश्रय से 'नारक' को लक्ष्य करके पृथक-पृथक नैगमादि नयों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है । यथा
किसी मनुष्य को पापीजन के साथ समागम करते हुए देखकर उसे नैगमनय की अपेक्षा नारकी कहा जाता है । जब वह धनुष-बाण हाथ में लेकर मृग को खोजता हुआ इधर-उधर घमता है तब वह व्यवहारनय से नारकी होता है। जब वह किसी एक स्थान में स्थित होकर मृग का घात करता है तब वह ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा नारकी होता है। जब वह जीव को प्राणों से वियुक्त कर देता है तब हिंसाकर्म से युक्त उसे शब्दनय की अपेक्षा नारकी कहा जाता है । जब वह नारक कर्म को बाँधता है तब नारक कर्म से संयुक्त उसे समभिरुढनय से नारकी कहा जाता है। जब वह नरकगति को प्राप्त होकर नारक दुःख का अनुभव करता है तब एवम्भूतनय से उसे नारकी कहा जाता है।
यहीं पर आगे निक्षेपार्थ के अनुसार नामादि के भेद से चार प्रकार के नारकियों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप प्रदर्शित किया गया है (धवला पु० ७, पृ० २८-३०)।
इसी स्वामित्व अनुयोगद्वार में देव कैसे होता है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि जीव देवगति में देव देवगतिनामकर्म के उदय से होता है। (सूत्र २,१,१०-११)
इसे स्पष्ट करते हुए प्रसंगवश धवला में कहा है कि नरक, तिथंच, मनुष्य और देव ये
१. धवला पु० ७, पृ० ८-१५ (इस बन्धप्रक्रिया को व्युच्छित्ति के रूप में गोककी ६४-१०२
गाथाओं में देखा जा स
षट्खण्डागम पर टोकाएँ । ४४६
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