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१७१ के अन्तर्गत 'अवाप्तवान्' का कर्ता कोन है, यह भी ज्ञात नहीं होता। इस प्रकार इस प्रसंग से सम्बद्ध उन १७१-७६ श्लोंकों में निहित अभिप्राय को समझना कठिन प्रतीत हो रहा है।
आचार्य वीरसेन ने धवला में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' का उल्लेख दो बार किया है। यथा
(१) “कम्मि तिरियलोगस्स पज्जवसाणं ? तिण्णं वादवलयाणं बाहिरभागे । तं कधं जाणिज्जदि ? 'लोगो वादपदिट्टिदो' त्ति वियाहपण्णत्तिवयणादो।" -पु० ३, पृ० ३४-३५
यहाँ तिर्यग्लोक का अन्त तीन वातवलयों के बाह्य भाग में है, इस अभिप्राय की पुष्टि में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के उक्त प्रसंग को प्रस्तुत किया गया है।
(२) “जीवा णं भंते ! कदिभागावसेसयंसि याउगंसि परभवियं आउगं कम्म णिबंधता बंधंति? गोदम ! जीवा दुविहा पण्णत्ता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव। तत्थ ......।" एदेण वियाहपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो।
-पु. १०, पृ० २३७-३८ यहाँ शंकाकार ने 'परभविक आयु के बंध जाने पर भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता है' इस अभिमत के विषय में उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के विरुद्ध होने की आशंका प्रकट की है। उसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आचार्य भेद से भिन्नता को प्राप्त है, अत: उसकी इसके साथ एकरूपता नहीं हो सकती। ___ उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के शब्दविन्यास को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह वर्तमान में उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) में कहीं होना चाहिए। पर षटखण्डागम के अन्तर्गत उस प्रसंग का अनुवाद करते समय वहाँ खोजने पर भी वह मुझे उपलब्ध नहीं हुआ था। ___आचार्य भट्टाकलंकदेव ने एक प्रसंगप्राप्त शंका के समाधान में अपने तत्त्वार्थवार्तिक मे व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों का उल्लेख इस प्रकार किया है
... 'इत्यत्रोच्यते-न, अन्यत्रोपदेशात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु शरीरभंगे वायोरौदारिकवैक्रियिक-तेजस-कार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि मनुष्याणां च । ..... व्याख्याप्रज्ञप्तिबण्डकष्वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्योक्तम्।"
-त०वा० २,४६,८ इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव के समक्ष कोई व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ रहा है, ऐसा प्रतीत होता है।
उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्तिगत उस प्रसंग के समान प्रज्ञापनासूत्र (६,४५-४६) और बहत्संग्रहणीसूत्र (३२७-२८) में भी उसी प्रकार का आयुबन्ध विषयक प्रसंग उपलब्ध होता है। वहाँ गौतम द्वारा पंचेन्द्रिय तियंचों के विषय में प्रश्न किया गया है कि वे आयु के कितने भाग शेष रहने पर परभविक आयु को बाँधते हैं। उसका उत्तर उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति के ही समान दिया गया है।
यह सुविदित है कि बारह अंगों में पाँचवाँ अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति रहा है। इसके अतिरिक्त बारहवें दृष्टिवाद अंग के पाँच भेदों में अन्तिम भेद भी व्याख्याप्रज्ञप्ति रहा है।
पर ऊपर इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में निर्दिष्ट व्याख्याप्रज्ञप्ति से वहाँ किसका अभिप्राय रहा है, यह ज्ञात नहीं होता।
जैसा कि आगे 'धवला टीका' के प्रसंग में स्पष्ट किया जाएगा, धवलाकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाकर आगे के निबन्धनादि अठारह (७-२४) अनुयोगद्वारों के आश्रय से षट्खण्ड
पटवण्डागम पर टीकाएँ।३४३
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