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रही है। उसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि मोक्ष जानेवाले जीवों की अपेक्षा व्यय के होने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि का व्युच्छेद नहीं होता है, यह बतलाने के लिए यह कालप्रमाण की प्ररूपणा अपेक्षित है।'
आगे के सूत्र (१,२,४) में जो क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण अनन्तानन्त लोक बतलाया गया है उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस प्रकार प्रस्थ द्वारा गेहूँ, जौ आदि धान्य मापा जाता है उसी प्रकार लोक के आश्रय से मिथ्यादष्टि जीवराशि का भी माप किया जाता है। इस प्रसंग में यह गाथा उद्धत की गयी है
पत्थेण कोदवेण व जह कोइ मिणेज्ज सव्वबीजाणि ।
एवं मिणिज्जमाणे हवंति लोगा अणंता दु ॥ इस प्रसंग में यह शंका की गयी है कि प्रस्थ के बाहर स्थित पुरुष उस प्रस्थ के बाहर स्थित बीजों को मापता है, पर लोक के भीतर स्थित पुरुष लोक के भीतर स्थित उस मिथ्यादृष्टि जीवराशि को कैसे माप सकता है। उत्तर में कहा गया है कि चूंकि बुद्धि के द्वारा लोक से मिथ्यादृष्टि जीवों को मापा जाता है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है । बुद्धि के द्वारा कैसे मापा जाता है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में पुन: कहा गया है कि एक-एक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादष्टि जीव को रखने पर एक लोक होता है. ऐसी मन से कल्पना करना चाहिए। इस प्रक्रिया को पुनः पुनः करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तलोक प्रमाण हो जाती है। यहाँ भी यह एक गाथा उद्धृत की गयी है
लोगागासपदेसे एक्कक्के णिक्खिवे वि तह दिट्ठ।
एवं गणिज्जमाणे वंति लोगा अणंता दु । लोकप्रमाण विषयक ऊहापोह
यहाँ लोक को जगश्रेणि के घनप्रमाण और उस जगश्रेणि को सात राजु आयत कहा गया है। इस प्रसंग में राज के प्रमाण के विषय में पूछने पर उत्तर में यह कहा है कि तिर्यग्लोक का जितना मध्य में विस्तार है उतना प्रमाण राजु का है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि जितने द्वीप-सागरों के रूप (संख्या) हैं तथा रूप (एक) से अधिक, अथवा मतान्तर से संख्यात रूपों से अधिक, जितने जम्बूद्वीप अर्धच्छेद हैं उनको विरलित करके व प्रत्येक के ऊपर दो (२) का अंक रखकर उन्हें परस्पर गुणित करने पर जो राशि प्राप्त हो उससे छेद करने से शेष रही राशि को गुणित करने पर राजु का प्रमाण प्राप्त होता है। यह श्रेणि के सातवें भाग मात्र ही होता है।
यहाँ तिर्यग्लोक का अन्त कहाँ पर हुआ है, यह पूछे जाने पर उत्तर में कहा गया है कि उसका अन्त तीनों वातवलयों के बाह्य भाग में हुआ है । प्रमाण के रूप में 'लोगो वादपदिट्रिदो" व्याख्याप्रज्ञप्ति का यह वचन उपस्थित किया गया है। स्वयम्भूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका के आगे कितना क्षेत्र जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों के विस्तार से जितने योजन रोके गये हैं उनसे संख्यात गुणे योजन
१. धवला पु० ३, पृ० ३२ २. यह गाथा आचारांगनियुक्ति (८७) में उपलब्ध होती है। पृ० ६३
षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ३६१
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