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आगे जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है। इस अभिप्राय की सिद्धि में कारणभूत ज्योतिषियों के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग मात्र भागहार के प्ररूपक सूत्र' के साथ "दुगुणद्गुणो दुवग्गो" तिलोयपण्णत्ति का यह सूत्र भी उपस्थित किया है और उसका समन्वय परिकर्मसूत्र के साथ किया गया है। साथ ही उसके विरुद्ध जानेवाले अन्य आचार्यों के व्याख्यान को सूत्र के विरुद्ध होने से व्याख्यानाभास भी ठहराया गया है। ___ अन्य आचार्यों के उस व्याख्यान के विरोध में दूसरी यह भी आपत्ति प्रकट की गयी है कि उस व्याख्यान का आश्रय लेने पर श्रेणि के सातवें भाग में आठ शन्य देखे जाते हैं, जिनके अस्तित्व का विधायक कोई सूत्र नहीं है। उन आठ शून्यों को नष्ट करने के लिए कुछ राशि अधिक हो
अधिक राशि भी असंख्यातवें भाग अधिक अथवा संख्यातवें भाग अधिक नहीं हो सकती है, क्योंकि उसका अनुग्राहक कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए दीप-सागरों से रोके गये क्षेत्र के आयाम से संख्यातगुणा बाहरी क्षेत्र होना चाहिए, अन्यथा पूर्वोक्त सूत्रों के साथ विरोध का प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होता है।
इस पर यहाँ फिर शंका की गयी है कि वैसा स्वीकार करने पर "एक हजार योजन अवगाहवाला जो मत्स्य स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य तट पर वेदनासमुद्घात से युक्त होता हुआ कापोतलेश्या (तनुवातवलय) से संलग्न है" यह जो वेदनासूत्र' है उसके साथ विरोध क्यों न होगा। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि स्वयम्भ रमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से वहाँ उक्त समुद्र के परभाग में स्थित पृथिवी को बाहरी तट के रूप में ग्रहण किया गया है । ___ इस प्रकार से धवला में पूर्वनिर्दिष्ट सूत्रों के आधार से विचार करते हुए अन्त में यह कहा गया है कि यह अभिप्राय यद्यपि पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय के विरुद्ध है, फिर भी हमने आगम और युक्ति के बल से उसकी प्ररूपणा की है। इसलिए 'यह इसी प्रकार है' ऐसा यहाँ कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि अतीन्द्रिय अर्थ के विषय में छद्मस्थों के द्वारा कल्पित युक्तियाँ निर्णय में हेतु नहीं हो सकती हैं । इसीलिए यहाँ उपदेश को प्राप्त करके विशेष निर्णय करना चाहिए।
भावप्रमाण
धवला में "द्रव्यप्रमाण, कालप्रमाण और क्षेत्र प्रमाण इन तीनों का अधिगम भावप्रमाण है" इस सूत्र (१,२,५) की व्याख्या करते हुए 'अधिगम' शब्द को ज्ञान का समानार्थक बतलाकर उसके मतिज्ञानादि पाँच भेदों का निर्देश किया है। उनमें प्रत्येक को द्रव्य, क्षेत्र और काल के भेद से तीन प्रकार का कहा है । इस प्रकार से धवला में प्रकृत सूत्र का यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि द्रव्य के अस्तित्व विषयक ज्ञान को द्रव्यभावप्रमाण, क्षेत्रविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को
१. जोदिसिया देवा देवगदिभंगो। खेत्तेण कपदरस्स बेछापण्णं गुलसदवग्गपडिभाएण । सूत्र २,
५, ४४ व २, ५, ३३ (पु०७); (सूत्र १, २, ६५ व १, २, ५५ (पु०३) द्रष्टव्य हैं) २. यह सूत्र वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में नहीं उपलब्ध होता । ३. धवला पु० ३, पृ० ३२-३८ ४. ष०ख० सूत्र ४,२,५,८-१० (पु० ११) ५. धवला पु० ३, पृ० ३८
३६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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