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इस प्रसंग में धवलाकार ने स्वयंप्रभ पर्वत के परमभाग में अवस्थित दीर्घ आयु वं विशाल अवगाहनावाली पर्याप्त राशि को प्रधान व उनकी अवगाहनाओं के घनांगुल आदि करके गणित प्रक्रिया के आधार से यह प्रकट किया है कि विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र संख्यात सूच्यंगुल से गुणित जगप्रतर प्रमाण है जो लोक का असंख्यातवाँ भाग है । वह अधोलोक व ऊर्ध्वलोक के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा है।
यहां यह स्मरणीय है कि प्रस्तुत क्षेत्रप्रमाण के विशेष स्पष्टीकरण के लिए धवलाकार ने लोक को पाँच प्रकार से ग्रहण किया है- (१) सात राजुओं का धनप्रमाण सामान्यलोक, (२) एक सौ छ्यानबे (१६६) धनराजु प्रमाण अधोलोक, (३) एक सौ सैतालीस (१४७) धनराजु प्रमाण ऊर्ध्वलोक, (४) पूर्व-पश्चिम में एक राजु विस्तृत, दक्षिण-उत्तर में सात राजु आयत और एक लाख योजन ऊँचा तिर्यग्लोक या मध्यलोक, और (५) पैतालीस लाख योजन विस्तारवाला व एक लाख योजन ऊंचा गोल मनुष्यलोक अथवा अढ़ाई द्वीप।'
वैक्रियिकसमुद्घातगत मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र पूर्व पद्धति के अनुसार लोक का असंख्यातवाँ भाग, अधोलोक व ऊर्ध्वलोक इन दो लोकों का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा कहा गया है। साथ ही यहाँ ज्योतिषी देवों की सात धनुषप्रमाण ऊँचाई प्रधान है।'
यद्यपि इस क्षेत्रप्रमाण के प्रसंग में मूल सूत्रों में स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद इन तीन अवस्थाओं का ही सामान्य से उल्लेख है; वहाँ स्वस्थान के पूर्वोक्त दो और समुद्घात के सात भेदों का निर्देश नहीं किया गया है, फिर भी धवलाकार ने इन भेदों के साथ दस अवस्थाओं को आधार बनाकर क्षेत्रप्रमाण की जो प्ररूपणा की है वह आचार्यपरम्परागत उपदेश के अनुसार तथा 'मिथ्यादृष्टि' इस सामान्य वचन से सूचित सात मिथ्यादृष्टिविशेषों को लक्ष्य बनाकर की है। इसी प्रकार सूत्रों में अनिर्दिष्ट शेष चार लोकों को भी सूत्रसूचित मानकर उनके आश्रय से प्रस्तुत क्षेत्र प्रमाण को निरूपित किया गया है।
इस ओघ क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा में सूत्रकार ने एक ही सूत्र (१,३,३) में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया है। लेकिन उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि ओर असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीन के, संयतासंयतों के तथा प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त संयतों के क्षेत्र की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की है।
इसी प्रकार सत्र (१,३,४) में सयोगिकेवलियों के क्षेत्र का जो सामान्य से उल्लेख किया गया है उसे विशद करते हुए धवलाकार ने विशेष रूप से दण्डसमुद्घातगत, कपाटसमुद्घात,
१. धवला पु० ४, पृ० ३१-३८ २. धवला पु० ४, पृ० ३० ३. मिच्छाइटिस्स सत्थाणादी सत्त वि सेसा सुत्तेण अणुदिट्ठा अस्थि त्ति कधं णव्वदे? आइरिय
परंपरागदुवदेसादो। किं चXXXसेस चत्तारि वि लोगा सुत्तेण सूचिदा चेवxxx
तम्हा सुत्तसंबद्ध मेवेदं वक्खाणमिदि ।-धवला पु० ४, पृ० ३८-३६ ४. धवला पु० ४, पृ० ३६-४७
४०६ / षट्लण्डागम-परिशीलन
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