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साथ धवलाकार ने आगे समन्वय भी किया है।'
शंकाकार ने एक शंका यह भी की थी कि जीव तो अनन्त हैं, पर लोक असंख्यात प्रदेशवाला ही है; ऐसी अवस्था में उस लोक में अनन्त जीवों का अवस्थान कैसे सम्भव है। इसका परिहार भी धवला (पु० ४, पृ० २२-२५) में विस्तार से किया गया है । क्षेत्रप्ररूपणा के आधारभूत दस पद
धवलाकार ने क्षेत्रप्ररूपणा में जीवों की इन अवस्थाओं को आधार बनाया है-स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद। इनमें स्वस्थान दो प्रकार का है-स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान । अपने उत्पन्न होने के ग्राम-नगरादि में सोना, बैठना व गमनादि की प्रवृत्तिपूर्वक रहने का नाम स्वस्थानस्वस्थान है । अपने उत्पन्न होने के ग्राम-नगरादि को छोड़कर अन्यत्र सोना, बैठना व गमनादि की प्रवृत्तिपूर्वक रहने को विहारवत्स्वस्थान कहा जाता है । मूलशरीर को न छोड़कर जीवप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलकर जाने का नाम समुद्घात है । वह सात प्रकार का है-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, तेजसशरीरसमुद्घात, आहारसमुद्घात और केवलीसमुद्घात । धवला में इन सब के स्वरूप का पृथक्-पृथक् विवेचन है ।
पूर्व पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय की प्राप्ति के प्रथम समय में जो अवस्था होती है उसे उपपाद कहा जाता है । वह एक ही प्रकार का है ।
इस तरह दो प्रकार के स्वस्थान, सात प्रकार के समुद्घात और एक उपपाद इन दस अवस्थाओं से विशेषित मिथ्यादृष्टि आदि चौदह जीवसमासों के क्षेत्र की प्ररूपणाविषयक प्रतिज्ञा कर धवलाकार ने प्रथमतः सूत्र निर्दिष्ट मिथ्यादृष्टियों के समस्त लोकक्षेत्र को स्पष्ट किया है । उन्होंने कहा है कि मिथ्यादृष्टि जीव स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद इन पाँच अवस्थाओं के साथ समस्त लोक में रहते हैं। इसका कारण यह है कि समस्त जीवराशि के संख्यातवें भाग से हीन सब जीवराशि स्वस्थानस्वस्थान रूप है । वेदना व कषायसमुद्घातों में वर्तमान जीव भी समस्त जीवराशि के संख्यातवें भाग मात्र है । मारणान्तिकसमुद्घातगत जीव भी सब जीवराशि के संख्यातवें भाग मात्र हैं । इसका भी कारण यह है कि इन तीनों जीवराशियों का समुद्घातकाल अपने जीवित के संख्यातवें भाग मात्र है । उपपादराशि सब जीवराशि के असंख्यातवें भाग है, क्योंकि वह एकसमय संचित है। इस प्रकार ये पांचों जीवराशियाँ अनन्त हैं, अतएव वे समस्त लोक में स्थित हैं।
विहारवत्स्वस्थान में परिणत मिथ्यादृष्टि लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि सपर्याप्तराशि ही विहार करने के योग्य है। इसमें भी उसका संख्यातवा भाग ही विहार में परिणत होता है। कारण कि 'यह मेरा है' इस बुद्धि से जो क्षेत्र गृहीत है वह तो स्वस्थान है और उससे बाहर जाकर रहना, इसका नाम विहारवत्स्वस्थान है । उस विहार में रहने का काल अपने निवासस्थान में रहने के काल के संख्यातवें भाग है।
१. धवला पु. ४, पृ० १०-२२ २. धवला पु० ४, पृ० २६-३१
षट्कण्डायम पर टीकाएँ / ४०५
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