________________
इसमें जिन प्रश्नों को उठाते हुए यह कहा गया है कि इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से समस्त पदार्थों का मनन करना चाहिए। उनसे क्रमश: ये छह अनुयोगद्वार फलित होते हैं१निर्देश, २ स्वामित्व, ३ साधन (कारण), ४ अधिकरण, ५ काल और ६ विधान (भेद)।
धवला में क्रम से इन छह अनुयोगद्वारों के आधार से उक्त मंगल की व्याख्या की गई है।
मंगल की प्ररूपणा के बाद धवला में प्रकारान्तर से यह कहा गया है - अथवा उस मंगल के विषय में इन छह अधिकारों का कथन करना चाहिए-१ मंगल, २ मंगलकर्ता, ३ मंगलकरणीय, ४ मंगल-उपाय, ५ मंगलविधान ६ मंगलफल । धवला में आगे इन छह के अनुसार भी मंगल का विधान है।
तत्पश्चात् धवला में यह स्पष्ट करते हुए कि मंगल का सूत्र क आदि, अन्त और मध्य में करना चाहिए; आगे 'उत्तं च' के साथ यह गाथा उद्धृत की गई है
आदीवसाण-मज्झे पण्णत्तं मंगलं जिणिदेहि ।
तो कयमंगलविणओ वि णमोसुत्तं पवक्खामि ।। यह गाथा कहाँ की है, किसके द्वारा रची गयी है तथा उसके उत्तरार्ध में जो यह निर्देश किया गया है कि 'इसलिए मंगलविनय करके मैं नमस्कार-सूत्र कहूँगा' यह अन्वेषणीय है। क्या णमोसुतं' से यहाँ प्रकृत पंचपरमेष्ठि-नमस्कारात्मक मंगलगाथासूत्र की विवक्षा हो सकती है ?
इसी प्रसंग में आगे आदि, अन्त और मध्य में मंगल के करने का प्रयोजन स्पष्ट किया गया है।
इस प्रकार धवला में विस्तार से मंगल की प्ररूपणा करके आगे 'इदाणि देवदाणमोक्कारसुत्तस्सत्थो उच्चदे' ऐसी सूचना करते हुए उक्त नमस्कारसूत्र के विषयभूत अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों के स्वरूप आदि का यथाक्रम से विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
पूर्व में शास्त्रव्याख्यान के पूर्व जिन मंगल व निमित्त आदि छह को व्याख्येय कहा गया था उनमें यहाँ तक धवला में प्रथम मंगल के विषय में ही विचार किया गया है। तत्पश्चात् आगे वहाँ निमित्त (पृ० ५४-५५), हेतु (५५-५६), परिमाण (पृ० ६०) और ५ नाम (पृ० ६०) के विषय में भी स्पष्टीकरण है।'
प्रसंगवश प्रकारान्तर से भी निमित्त और हेतु को स्पष्ट करते हुए धवला में जिनपालित को निमित्त और मोक्ष को हेतु कहा गया है। .
(७) कर्ता-आगे कर्ता के प्रसंग में उसके अर्थकर्ता और ग्रन्थ कर्ता इन दो भेदों का निर्देश कर अर्थकर्ता भगवान् महावीर की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार प्ररूपणा है ।
द्रव्यप्ररूपणा में वहाँ महावीर के दिव्य शरीर की विशेषता को प्रकट किया गया है। क्षेत्रप्ररूपणा के प्रसंग में कुछ गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनके आश्रय से 'राजगृह (पंचशैलपुर)
१. धवला पु० १, पृ० ३८ २. वही, पु० १, पृ० ४० ३. वही, पू० १, पृ० ४२-५४ ४. वही, ५५-६० ५. वही, पु० १, पृ० ६०
षट्खण्डागम पर टोकाएं। ३६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org