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है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। ___ यहाँ शंकाकार ने इस चक्षुदर्शन की असम्भावना को प्रकट करते हुए अपना पक्ष इस प्रकार स्थापित किया है--विषय और विषयी के सम्पात के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है उसे अवग्रह माना जाता है। प्रश्न है कि वह अवग्रह विधिसामान्य को ग्रहण करता है या प्रतिषेधसामान्य को ? वह बाह्य पदार्थगत विधिसामान्य को तो ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि प्रतिषेध से रहित विधिसामान्य अवस्तुरूप है; अतएव वह उसका विषय नहीं हो सकता है। जो ज्ञान प्रतिषेध को विषय नहीं करता है उसकी प्रवृत्ति विधि में सम्भव नहीं है। इसी प्रसंग में आगे प्रतिषेध से उस विधि के भिन्नता-अभिन्नता विषयक विकल्पों को उठाते हुए उसके ग्रहण का निषेध किया गया है। इस प्रकार अवग्रह द्वारा विधिसामान्य के ग्रहण का निराकरण कर आगे वादी ने उसके द्वारा प्रतिषेध सामान्य के ग्रहण का भी निषेध विधिपक्ष में दिये गये दूषणों की सम्भावना के आधार पर किया है । अन्त में निष्कर्ष निकालते हुए उसने कहा है कि इससे निश्चित है कि जो विधि-निषेधरूप बाह्य अर्थ को ग्रहण करता है उसे अवग्रह कहना चाहिए और वह दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि सामान्य ग्रहण का नाम दर्शन है। इसलिए चक्षुदर्शन घटित नहीं होता है।
इस प्रकार वादी के द्वारा चक्षुदर्शन के अभाव को सिद्ध करने पर उसके इस पक्ष का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि दर्शन के विषय में जो दोष दिये गये हैं वे वहाँ चरितार्थ नहीं होते। कारण यह है कि वह दर्शन अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है, न कि बाह्य पदार्थ को; जिसके आश्रय से उन दोषों को उद्भावित किया गया है । वह जिस अन्तरंग अर्थ को विषय करता हैं वह सामान्य-विशेषरूप है, वह न केवल सामान्य रूप है और न केवल विशेष रूप भी है। इस प्रकार जब विधि-सामान्य और प्रतिषेध-सामान्य में उपयोग की प्रवृत्ति क्रम से घटिल नहीं होती है तब उन दोनों में उसकी प्रवृत्ति को युगपत् स्वीकार कर लेना चाहिए। ___ इस पर पुनः यह शंका की गयी है कि वैसा स्वीकार करने पर वह अन्तरंग उपयोग भी दर्शन नहीं ठहरता है, क्योंकि आपके कथनानुसार वह अन्तरंग उपयोग सामान्य-विशेष को विषय करता है, जबकि दर्शन सामान्य को विषय करता है। समाधान में कहा गया है कि 'सामान्य' शब्द से सामान्य-विशेष रूप आत्मा को ही ग्रहण किया जाता है। ___ 'सामान्य' शब्द से आत्मा का ग्रहण कैसे सम्भव है, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूपसामान्य में नियमित है, क्योंकि उसके आश्रय से रूपविशिष्ट अर्थ का ही ग्रहण होता है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रियावरण का वह क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान है, और चूंकि वह क्षयोपशम आत्मा से भिन्न सम्भव नहीं है, इसलिए उससे अभिन्न आत्मा भी समान है। इस प्रकार समान के भावरूप वह सामान्य आत्मा ही सम्भव है और चूंकि दर्शन उसे ही विषय करता है, इसलिए अन्तरंग उपयोग के दर्शन होने में कुछ भी विरोध नहीं आता।
इस प्रकार से यहाँ अन्य शंका-समाधान पूर्वक प्रकृत चक्षुदर्शन आदि के विषय में विचार किया गया है।'
१. धवला पु० १, पृ० ३७८-८२ ३७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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