________________
___ इस प्रकार इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम पर निर्मित जिन छह टीकाओं का उल्लेख किया है उनमें एक यह धवला टीका ही उपलब्ध है जो प्रकाशित हो चुकी है। यह प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में लिखी गई है। विचारणीय समस्या
इन्द्रनन्दितावतार में निर्दिष्ट 'परिकर्म' आदि षटखण्डागम की छह टीकाओं में एक यह छठी धवला टीका ही उपलब्ध है, शेष परिकर्म आदि पाँच टीकाओं में से कोई भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। वे कहाँ गयीं व उनका क्या हुआ ?
षट्खण्डागम और कषायप्राभृत मूल तथा उनकी धवला व जयधवला टीकाएँ दक्षिण (मूडबिद्री) में सुरक्षित रहीं हैं । जहाँ तक मैं समझ सका हूँ, दक्षिण में भट्टारकों के नियन्त्रण में इन ग्रन्थों की सुरक्षा रही है, भले ही ये किन्हीं दूसरों के उपयोग में न आ सके हों। ऐसी स्थिति में उन पाँच टीकाओं का लुप्त हो जाना आश्चर्यजनक है। श्रुतावतार में निर्दिष्ट नामों के अनुसार इन टीकाओं के रचियता दक्षिणात्य आचार्य ही रहे दिखते हैं ।
ये टीकाएँ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचकवर्ती के समय में उपलब्ध रही या नहीं, यह भी कुछ कहा नहीं जा सकता। हाँ, धवला व जयधवला टीकाएँ तथा आचार्य यतिवृषभ विरचित चूर्णिसूत्र अवश्य ही उनके समक्ष रहे हैं और उनका उन्होंने अपनी ग्रन्थ-रचना में भरपूर उपयोग भी किया है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
श्रुतावतार के रचियता आचार्य इन्द्रनन्दी के समक्ष भी वे पाँच टीकाएँ रही हैं और उनका अवलोकन करके ही उन्होंने परिचय कराया है, यह भी सन्देहास्पद है। यदि वे उनके समक्ष रही होती तो वे, जैसा कि उन्होंने धवला और जयधवला का स्पष्ट रूप में परिचय कराया है, उनका भी विस्तार से परिचय करा सकते थे। पर वैसा नहीं हुआ, उनके परिचय में उन्होंने जिन पद्यों को रचा है उनके अन्तर्गत पदों का विन्यास कुछ असम्बद्ध-सा रहा है। इससे अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो सका है। जैसे ---
(१) 'परिकर्म' के परिचय के प्रसंग में प्रयुक्त १६१वें पद्य में 'सोऽपि द्वादशसहस्रपरि
आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान् गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चात्राऽऽनत्तेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा ।।१७६।। व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् (?)। उवरितमबन्धनाद्यधिकारैरष्टादशविकल्पैः ॥१८०।। सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्र द्विसप्तत्या ।।१८१।। प्राकृत-संस्कृतभाषामिश्रां टीकांविलिख्य धवलाख्याम । जयधवलां च कपायप्राभूतके चतसृणां विभक्तीनाम् ।।१८२।। विंशतिसहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिश्यो जय [जिन] सेनगुरुनामा ॥१८३।। तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्र : समापितवान् । जयधवलैवं षष्टिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ।।१८४॥
षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ३४५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org