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लिंगज श्रुत के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि धूमलिंग से जो अग्नि का शान होता है वह अशब्दलिंगज श्रुत कहलाता है । शब्दलिंगज श्रुत इससे विपरीत लक्षण वाला है ।
इस प्रसंग में लिंग का लक्षण पूछने पर धवला में कहा गया है कि उसका लक्षण अन्यथानुपपत्ति है । यहाँ बौद्धों के द्वारा पक्षधर्मत्व, सपक्ष में सत्त्व और विपक्ष में असत्त्व इन तीन लक्षणों से उपलक्षित वस्तु को जो लिंग माना गया है उसका निराकरण करते हुए उसे अनेक उदाहरणों द्वारा सदोष सिद्ध किया गया है । यथा---
(१) ये आम के फल पके हुए हैं, क्योंकि वे एक शाखा में उत्पन्न हुए हैं; जैसे उपयोग में आये हुए आम के फल ।
(२) वह साँवला है, क्योंकि तुम्हारा पुत्र है; जैसे तुम्हारे दूसरे पुत्र |
(३) वह भूमि समस्थल है, क्योंकि भूमि है; जैसे समस्थल रूप से वादी प्रतिवादी के सिद्ध प्रसिद्ध भूमि ।
(४) लोहलेख्य वज्र है, क्योंकि वह पार्थिव है, जैसे घट |
इन उदाहरणों में क्रम से एक शाखा में उत्पन्न होना, तुम्हारा पुत्रत्व, भूमित्व और पार्थिवत्व; ये हेतु (लिंग) उपर्युक्त पक्षधर्मत्व आदि तीन लक्षणों से सहित होकर भी अभीष्ट साध्य की सिद्धि में समर्थ नहीं है, क्योंकि वे व्यभिचरित हैं ।
इसके विपरीत इन अनुमानों में प्रयुक्त सत्त्वादि हेतु उक्त तीन लक्षणों से रहित होकर भी व्यभिचार से रहित होने के कारण अपने अनेकान्तात्मकत्व आदि साध्य के सिद्ध करने में समर्थ हैं—
(१) विश्व अनेकान्तात्मक है, क्योंकि वह सत्स्वरूप है
(२) समुद्र बढ़ता है, क्योंकि उसके बिना चन्द्र की वृद्धि घटित नहीं होती है ।
(३) चन्द्रकान्त पाषाण से जल बहता है, क्योंकि उसके बिना चन्द्र का उदय घटित नहीं
होता ।
(४) रोहिणी नक्षत्र का उदय होनेवाला है, क्योंकि उसके बिना शकट का उदय सम्भव नहीं है ।
(५) राजा की मृत्यु होनेवाली है, क्योंकि उसके बिना रात में इन्द्रधनुष की उत्पत्ति नहीं बनती ।
(६) राष्ट्र का विनाश अथवा राष्ट्र के अधिपति का मरण होनेवाला है, क्योंकि उसके बिना प्रतिमा का रुदन घटित नहीं होता ।
इस प्रकार पूर्वोक्त उदाहरणों में वादी के द्वारा निर्दिष्ट तीन लक्षणों के रहते हुए भी वहाँ साध्यसिद्धि के लिए प्रयुक्त एकशाखाप्रभवत्व आदि हेतु अपने साध्य की सिद्धि में समर्थ नहीं हैं। इसके विपरीत उपर्युक्त सत्त्व आदि हेतु उन तीन लक्षणों के बिना भी अपने अनेकान्तात्मकता आदि साध्य की सिद्धि में समर्थ हैं ।
इस प्रकार धवला में उक्त तीन लक्षणों के रहते हुए भी साध्यसिद्धि की असमर्थता और उन तीन लक्षणों के न रहने पर भी साध्यसिद्धि की समर्थता को दोनों प्रकार के उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करके अन्त में यह कहा गया है कि इसलिए 'इसके ( साध्य के ) बिना यह ( साधन) घटित नहीं होता है' इस प्रकार के अविनाभावरूप 'अन्यथानुपपत्ति' को हेतु का लक्षण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वही व्यभिचार से रहित होकर अपने साध्य की सिद्धि में सर्वथा ससमर्थ
- ३६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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