________________
यहाँ यह भी कह दिया है कि अथवा प्रमाण द्रव्य से किसी स्वरूप से भिन्न भी है, क्योंकि इसके बिना उनमें विशेषण-विशेष्यभाव घटित नहीं होता है। इसलिए भी उनमें तत्पुरुष समास सम्भव है।
विकल्परूप में उपर्युक्त शंका के समाधान में 'अथवा' कहकर यह भी कहा गया है कि 'दव्वमेव पमाणं दव्वपमाणं' इस प्रकार से उनमें कर्मधारय समास करना चाहिए। इस प्रकार के समास में भी उन द्रव्य और प्रमाण में सर्वथा अभेद नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक अर्थ में (अभेद में) समास का होना सम्भव नहीं है।
आगे पुनः 'अथवा' कहकर वहाँ विकल्प रूप में 'दव्वं च पमाणं दव्वपमाणं' इस द्वन्द्व समास को भी विधेय कहा गया है। इस प्रकार शंका उत्पन्न हुई है कि द्वन्द्व समास में अवयवों की प्रधानता होती है । तदनुसार यहाँ द्वन्द्व समास के करने पर द्रव्य और प्रमाण इन दोनों की प्ररूपणा का प्रसंग प्राप्त होता है। पर सूत्र में उन दोनों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई है। यदि उस द्वन्द्व समास में समुदाय की प्रधानता को भी स्वीकार किया जाय तो भी अवयवों को छोड़कर समुदाय कुछ शेष रहता नहीं है, इस प्रकार से भी अवयवों की ही प्ररूपणा का प्रसंग प्राप्त है। किन्तु सूत्र में अवयवों की अथवा समुदाय की प्ररूपणा की नहीं गई है इसलिए उनमें द्वन्द्व समास करना उचित नहीं है।
___ इस शंका में शंकाकार द्वारा उद्भावित दोष का निराकरण करते हुए आगे धवला में स्पष्ट किया गया है कि सत्र में द्रव्य के प्रमाण की प्ररूपणा करने पर द्रव्य की भी प्ररूपणा हो हो जाती है, क्योंकि द्रव्य को छोड़कर प्रमाण कुछ है ही नहीं। कारण यह कि त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों का जो परस्पर में एक-दूसरे को न छोड़ कर अभेद रूप से अस्तित्व है उसी का नाम द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्य और उसकी प्रमाणभूत संख्यारूप पर्याय में पर्याय-पर्यायी रूप में कथंचित् भेद के सम्भव होने पर भी सूत्र में चूंकि द्रव्य के गुणस्वरूप प्रमाण की प्ररूपणा की गई है, अतः उसकी प्ररूपणा से द्रव्य की प्ररूपणा स्वयंसिद्ध है। कारण यह कि गुण की प्ररूपणा से ही द्रव्य की प्ररूपणा सम्भव है, क्योंकि उसके बिना द्रव्य की प्ररूपणा का दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।
इस प्रकार उन दोनों में उपर्युक्त रीति से द्वन्द्व समास करने पर भी कुछ विरोध नहीं रहता।
इसी प्रसंग में आगे 'वे सब समास कितने हैं यह पूछने पर एक श्लोक को उद्धृत करते हुए उसके आश्रय से बहुव्रीहि, अव्ययीभाव, द्वन्द्व, तत्पुरुष, द्विगु और कर्मधारय इन छह समासों का उल्लेख किया गया है। अनन्तर दूसरे एक श्लोक को उद्धृत करते हुए उसके द्वारा इन छह समासों के स्वरूप का भी दिग्दर्शन करा दिया गया है।'
(३) धवला में आगे यथाप्रसंग इन समासों का उपयोग भी किया गया है। उदाहरणस्वरूप भावानुगम में यह सूत्र आया है"लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु चदुट्ठाणी ओघं।"
--सूत्र १,७,५६
१. इस सब के लिए धवला पु० ३, पृ० ४-७ द्रष्टव्य हैं। (एवम्भूतनय की दृष्टि में समास
और वाक्य सम्भव नहीं हैं, यह प्रसंग भी धवला पु० १, पृ० ६०-६१ में द्रष्टव्य है)। ३५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org