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दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर, 'चूडामणि' नाम की विस्तृत व्याख्या लिखी। यह ग्रन्थरचना से चौरासी हजार श्लोक प्रमाण रही है। उसकी भाषा कर्नाटक रही है। इसके अतिरिक्त छठे खण्ड पर उन्होंने सात हजार श्लोक प्रमाण 'पंजिका' की। __यह 'चूडामणि' और 'पंजिका' भी वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। उनका कहीं और उल्लेख भी नहीं दिखता। ४. समन्तभद्र विरचित टीका
तत्पश्चात् श्रुतावतार में ताकिकार्क आचार्य समन्तभद्र विरचित संस्कृत टीका का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि तुम्बुलूराचार्य के पश्चात् कालान्तर में ताकिकार्क समन्तभद्र स्वामी हुए। उन्होंने उन दोनों प्रकार के सिद्धान्त का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पाँच खण्डों पर एक टीका लिखी। ग्रन्थ-रचना से वह अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण थी। भाषा उसकी अतिशय सुन्दर मृदु संस्कृत रही है। 'समन्तभद्र' से अभिप्राय इन्द्रनन्दी का उन स्वामी समन्तभद्र से ही रहा है जिन्होंने तर्कप्रधान देवागम (आप्तमीमांसा), युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र आदि स्तुतिपरक ग्रन्थों को रचा है। वे 'स्वामी' के रूप में विशेष प्रसिद्ध रहे हैं। इन्द्रनन्दी ने उन्हें तार्किकाकं कहा है। अष्टसहस्री के टिप्पणकार ने भी उनका उल्लेख ताकिकार्क के रूप में किया है (अष्टस० पृ० १ का टिप्पण)।
धवलाकार ने भी उनका उल्लेख समन्तभद्रस्वामी के रूप में किया है। धवला में समन्तभद्राचार्य द्वारा विरचित देवागम, स्वयम्भूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन आदि के अन्तर्गत पद्यों के उद्धृत करने पर भी उनके द्वारा विरचित इस टीका का कहीं कोई उल्लेख क्यों नहीं किया गया, यह विचारणीय है।
१. तस्मादारात् पुनरपि काले गतवति कियत्यपि च ॥ १६४ उत्त० ।।
अथ तुम्बुलूरनामाचार्योऽभूत्तुम्बुलू रसद्ग्रामे । षष्ठेन विना खण्डेन सोऽपि सिद्धान्तयोरुभयोः ।।१६।। चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनया युक्ताम् । कर्णाटभाषयाऽकृत महती चूडमणि व्याख्याम् ॥१६६।।
सप्तसहस्रग्रन्थां षष्ठस्य च पञ्जिकां पुनरकार्षीत् ।।१६७ पू० ॥ २. कालान्तरे ततः पुनरासन्ध्यांपलरि (?) ताकिकार्कोऽभूत् ॥१६७ उत्त० ॥
श्रीमान् समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधम् । सिद्धान्तमतः षट्खण्डागमगतखण्डपञ्चकस्य पुनः ।।१६८।। अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसद्ग्रन्थरचनया युक्ताम् । विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ।।१६६॥ ३. क-तहा समंतभद्दसामिणा वि उत्तं-विधिविषक्त..... (स्वयम्भू० ५२) । धवला पु०
७, पृ० ६६ ख–तथा समन्तभद्रस्वामिनाप्युक्तम्-स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः (देवागम
१०६) ॥धवला पु० ६, पृ० १६७ ग-उत्तं च-नानात्मतामप्रजहत्...' (युक्त्यनु० ५०) धवला पु० ३, पृ० ६
षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ३४१
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