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यह टीका भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है तथा उसका अन्य कहीं किसी प्रकार का उल्लेख भी नहीं देखा गया है।
इन्द्रनन्दी ने इसी प्रसंग में आगे यह भी कहा है स्वामी समन्तभद्र द्वितीय सिद्धान्तग्रन्थ की व्याख्या लिख रहे थे, किन्तु द्रव्यादिशुद्धि के करने के प्रयत्ल से रहित होने के कारण उन्हें अपने सधर्मा ने रोक दिया था।'
५. बप्पदेवगुरु विरचित व्याख्या
इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में आगे एक व्याख्या का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इस प्रकार परम गुरुओं की परम्परा से दोनों प्रकार के सिद्धान्त के व्याख्यान का यह क्रम चलता रहा। उसी परम्परा से आते हुए उसे अतिशय तीक्ष्णबुद्धि शुभनन्दी और रविनन्दी मुनियों ने प्राप्त किया। उन दोनों के पास में, भीमरथी और कृष्णमेखा नदियों के मध्यगत देश में रमणीय उत्कलिका ग्राम के समीप प्रसिद्ध मगणवल्ली ग्राम में विशेष रूप से सुनकर बप्पदेव गुरु ने छह खण्डों में से महाबन्ध को अलग कर शेष पाँच खण्डों में छठे खण्ड व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्रक्षिप्त किया। इस प्रकार निष्पन्न हए छह खण्डों और कषायप्राभूत की उन्होंने साठ हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत भाषारूप पुरातन व्याख्या लिखी। साथ ही, महाबन्ध पर उन्होंने पांच अधिक आठ हजार ग्रन्थ प्रमाण व्याख्या लिखी। __ ऊपर निर्दिष्ट 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' से क्या अभिप्रेत रहा है, यह ज्ञात नहीं होता। श्लोक १७४-७५ के अन्तर्गत "व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खण्डं च तत (१) संक्षिप्य । षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां" इन पदों का परस्पर सम्बन्ध भी विचारणीय है। 'तत' यह अशुद्ध भी है, उसके स्थान में 'ततः' रहा है या अन्य ही कुछ पाठ रहा है, यह भी विचारणीय है। इसी प्रकार श्लोक
१. विलिखन् द्वितीयसिद्धान्तस्य व्याख्या सधर्मणा स्वेन ।
द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात् प्रतिनिषिद्धम् ॥१७०।। (सम्भव है इस प्रतिषेध का कारण भस्मक व्याधि के निमित्त से उनके द्वारा कुछ समय के लिए किया गया जिनलिंग का परित्याग रहा हो ।) २. एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया।
आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम् ॥१७१॥ शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः । मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामीप्यम् ॥१७२॥ विख्यातभगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पाश्र्चे तमशेषं बप्पदेवगुरुः ॥१७३।। अपनीय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेषपञ्चखण्डे तु । व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खण्डं च तत (?) संक्षिप्य ॥१७४।। षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्यप्राभृतकस्य च षष्ठिसहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ॥१७५।। व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक् पुरातनव्याख्याम् ।
अष्टसहस्रग्रन्थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ।।१७६।। ३४२ / षट्वण्डागम-परिशीलन
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