________________
से सम्बन्धित हैं । वहाँ सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत गुणस्थान में व्युच्छिन्न होनेवाली पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों के आश्रय से विस्तार पूर्वक मूल (४) और उत्तर (५७) प्रत्ययों का गुणस्थानादि के क्रम से विचार किया गया है । इसी प्रकार आगे प्रसंग के अनुसार विवक्षित अन्य प्रकृतियों के भी प्रत्ययों का विचार किया गया है।
क० का० में छठा स्वतंत्र 'प्रत्यय' अधिकार है । वहाँ धवला के समान ही गुणस्थानादि के क्रम से मूल और उत्तर प्रत्ययों का विचार किया गया है (गाथा ७८५-६०)।
दोनों ग्रन्थों में प्रत्ययों की यह प्ररूपणा समान रूप में ही की गई है। उदाहरणस्वरूप ५७ उत्तरप्रत्ययों में से मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में कहाँ कितने प्रत्ययों के आश्रय से बन्ध होता है, इसे धवला में यथाक्रम से गुणस्थानों में स्पष्ट करते हुए उपसंहार के रूप में यह . गाथा उद्धृत की है--
पणवण्णा इर वण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य ।
चवीस दुबावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्त ॥ क० का० में उन प्रत्ययों की यह प्ररूपणा जिन दो गाथाओं के द्वारा की गई है उनमें प्रथम गाथा प्रायः धवला में उद्धृत इस गाथा से शब्दशः समान है । यथा
पणवण्णा पण्णासा तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चवीसा बावीसा बावीसमपव्वकरणो त्ति ॥ थूले सोलस पहदी एगणं जाव होदि दसठाणं ।
सुहुमादिसु दस णवयं णवयं जोगिम्हि सत्तेव ।।७६०।। विशेष इतना है कि धवला में उद्धृत उस गाथा का उत्तरार्ध कुछ दुरूह है। उसके अभिप्राय को क० का० में दूसरी गाथा के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है । यथा--उक्त गाथा में 'दुबावीसा' कहकर दो वार 'बाईस' संख्या का संकेत किया गया है। वह क० का० की दूसरी गाथा में स्पष्ट हो गया है, साथ ही वहाँ अपूर्वक रण गुणस्थान का भी निर्देश कर दिया गया है। आगे स्थल अर्थात बादरसाम्पराय (अनिवत्तिकरण ) में १६ प्रत्ययों को सचना करके १० तक १-१ कम करने (१५,१४,१३,१२,१६,१०) की ओर संकेत कर दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि अनिवृत्तिकरण के सात भागों में नपुंसकवेद आदि एक-एक प्रत्यय के कम होते जाने से १६,१५,१४,१३,१२,११ और १० प्रत्यय रहते हैं । पश्चात् 'सुहमादिसु' से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सूक्ष्मसाम्प राय में १०, उपशान्त कपाय में ६, क्षीण कषाय में है और सयोगकेवली गुणस्थान में ७ प्रत्यय रहते हैं। ___ आगे धवला में यह भी स्पष्ट किया गया है कि मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में इन ५७ प्रत्ययों में से एक समय में जघन्य से कितने और उत्कर्ष से कितने प्रत्यय सम्भव हैं। इसे बतलाते हुए वहाँ अन्त में 'एत्थ उवसंहारगाहा' ऐसी सूचना करते हुए एक गाथा उद्धतकी
१. धवला पु०८, पृ०१६-२८ २. वही , पृ० २२-२४ ३. धवला पु० ८, २४-२८
३३०/ षटखण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.