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पाससदमेत्ता आबाधा होदि।"
-पु० १, पृ० १५२ विशेष इतना है कि क० का० में जहां प्रमाणराशि एक कोड़ाकोड़ि रही है वहाँ धवला में वह तीस कोड़ाकोड़ी रही है।
अन्तःकोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थिति के आबाधाकाल का निर्देश समान रूप से दोनों ग्रन्थों में अन्तर्मुहूर्त मात्र किया गया है।' ___ आबाधा का उपर्युक्त नियम आयुकर्म के लिये नहीं है, इसका संकेत पूर्व में किया जा चुका है। उसका आबाधाकाल दोनों ही ग्रन्थों में पूर्वकोटि के विभाग से लेकर असंक्षेपाद्धां काल तक निर्देश किया गया है।
८. षटखण्डागम के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्वविचय में क्रम से ओघ और आदेश की अपेक्षा विवक्षित प्रकृतियों का बन्ध किस गुणस्थान से कहाँ तक होता है, इसका विचार किया गया है । जैसे
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन सोलह प्रकृतियों का कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्परायिक संयत उपशमक और क्षपक तक उनके बन्धक हैं, सूक्ष्मसाम्परायिककाल के अन्तिम समय में उनके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव उनके अबन्धक हैं (सूत्र ३, ५-६ पु० ८)।
कर्मकाण्ड में भी उस बन्धव्युच्छित्ति का विचार प्रथमत: क्रम से गुणस्थानों में और तत्पश्चात् गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में किया गया है तथा बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का भी उल्लेख किया गया है । (गाथा ६४-१२१)
प० ख० में ऊपर जिन पांच ज्ञानावरणीय आदि १६ प्रकृतियों के बन्ध और उनकी व्युच्छिति का निर्देश दसवें सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तक किया गया है कर्मकाण्ड में उनका उल्लेख दसवें गुणस्थान के प्रसंग में इस प्रकार किया है
'पढमं विग्ध सणचउ जस उच्चं च सहमंते ॥"-गाथा १०१ उत्तरार्ध इस विषय में दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय समान रहा है, पर प्ररूपणा की पद्धति दोनों ग्रन्थों में भिन्न रही है। प० ख० में जहाँ ओघ और आदेश के अनुसार बन्ध और उसकी व्युच्छित्ति की प्ररूपणा ज्ञान-दर्शनावरणीयादि प्रकृतियों के क्रम से गई है वहाँ कर्मकाण्ड में उसकी प्ररूपणा ज्ञानावरणादि कर्मों के क्रम से न करके गुणस्थानक्रम से की गई है। यह अवश्य है कि ष० ख० में ज्ञानावरणादि के क्रम से उसकी प्ररूपणा करते हुए भी क्रमप्राप्त विवक्षित ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के साथ विवक्षित गुणस्थान तक बंधनेवाली अन्य प्रकृतियों का भी उल्लेख एक साथ कर दिया गया है। जैसे-ऊपर ज्ञानावरणीय को प्रमुख करके उसके साथ दसवें गण स्थान तक बंधनेवाली अन्य दर्शनावरण प्रादि का भी उल्लेख कर दिया गया है।
इस प्रकार ष० ख० में जहाँ ज्ञानावरण की प्रमुखता से प्रथमतः दसवें गुणस्थान तक बंधने वाली प्रकृतियों का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है वहाँ क० का० में प्रथमतः प्रथम गुणस्थान में बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है और तत्पश्चात् १. १०ख०, सूत्र १,६-६,३३ व ३४ (पु० ६, पृ० १७४ व १७७) तथा क०का० गाथा १५७ २. वही सूत्र १,६-६,२२-२७ व धवला पृ० १६६-६७ (पु. ६) तथा क०का० गाथा १५८
१२८ / षड्लग्डागम-परिशीलन
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