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"दीक्षायोग्य साध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधान- व्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चैर्गोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युच्च गत्रम् ।” – पु० १३, पृ० १८२ ५. स्त्यानगृद्धि के उदय से जीव की कैसी प्रवृत्ति होती हैं, इसका उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान रूप से इस प्रकार किया गया है
"थी गिद्धीए तिव्वोदएण उट्ठाविदो वि पुणो सोवदि सुत्तो वि कम्मं कुणदि, सुत्तो वि शंक्खइ, दंते, 'कडकडावेइ ।" धबला पु० ६, पृ० ३२, ५० १३, पृ० ३५४ पर भी उसका स्वरूप द्रष्टव्य है ।
"थीणुदयेणुविदे सोर्वादि कम्मं करेवि जप्पदि य । "
- कर्मकाण्ड गाथा २३ पू०
६. जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में दूसरी 'स्थानसमुत्कीर्तन' चूलिका है । उसमें एक जीव के यथासम्भव एक समय में बाँधनेवाली प्रकृतियों के समूहरूप स्थान का विचार किया गया है ।
उदाहरणस्वरूप दर्शनावरणीय के नौ, छह और चार प्रकृतियोंरूप तीन स्थान हैं । इनमें नौ प्रकृतिरूप प्रथम बन्धस्थान मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि के सम्भव है । उनमें से निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि को छोड़कर शेष छह प्रकृतियोंरूप दूसरा स्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण के सात भागों में प्रथम भाग तक सम्भव है । चक्षुदर्श नावरणीय आदि चार प्रकृतियोंरूप तीसरा स्थान अपूर्वकरण के द्वितीय भाग से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत तक सम्भव है (सूत्र १, ६-२,७-१६) ।
कर्मकाण्ड में उपर्युक्त नो अधिकारों में पांचवां स्थानसमुत्कीर्तन' अधिकार भी है। उसमें भी स्थानों आदि की प्ररूपणा की गई है। उदाहरणस्वरूप, जिस प्रकार उपर्युक्त षट्खण्डागम की दूसरी चूलिका में दर्शनावरणीय के तीन स्थानों का उल्लेख किया गया है ठीक उसी प्रकार क० का० में भी संक्षेप से दर्शनावरणीय के उन तीन स्थानों की प्ररूपणा की गई है ( गाथा ४५६ - ६० ) । विशेषता वहाँ यह रही है कि संक्षेप में उनकी प्ररूपणा करते हुए भी उसके साथ भुजकार, अल्पतर और अवस्थित बन्ध का भी निर्देश कर दिया गया है ।
७. जीवस्थान की उन नौ चूलिकाओं में छठी 'उत्कृष्टस्थिति' और सातवीं 'जघन्यस्थिति' चूलिका है। इनमें यथाक्रम से कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है ।
कर्मकाण्ड में कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट - जघन्य स्थिति की प्ररूपणा दूसरे 'बन्धोदय सत्त्व' अधिकार के अन्तर्गत स्थितिबन्ध के प्रसंग में कुछ विशेषता के साथ की गई है ।
( गाथा १२७-६२ )
विशेषता यह रही है कि षट्खण्डागम में जहाँ शाब्दिक दृष्टि से विस्तार हुआ है वहाँ कर्मकाण्ड में संक्षेप से थोड़े ही शब्दों में उसका व्याख्यान दिया है । यथा-
"पंचणं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणाव रणीयाणं असादावेदणीयं पंचण्हमंतराइयाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ । तिष्णिसहस्साणि आबाधा । आबाघूर्णिया कम्मद्विवी कम्मणिसेओ । सादावेदणीय- इत्थिवेद-मणुसग ति मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्विणामाणमुवकसभ द्विदिबंधो पण्णारस सागरोवमकोडाकोडीओ पण्णारस वाससदाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्टी कम्मणिसेओ । मिच्छत्तरस उक्कस्सओ द्विदिबंधो सप्तरि सागरोवमकोडाफोडीओ ।
१२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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