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यथाक्रम से सासादनादि अन्य गुणस्थानों में बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है (गाथा ६४-१०१)।
__ इसी प्रकार आगे भी दोनों ग्रन्थों में अपनी अपनी पद्धति के अनुसार बन्ध व उसकी व्युच्छित्ति की प्ररूपणा की गई है।
उदाहरण के रूप में, ज्ञानावरणीय के बाद दर्शनावरणीय क्रमप्राप्त है। अत एव आगे ष० ख० में दर्शनावरणीय की निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन प्रकृतियों की प्रमुखता से उनके साथ सासादन गुणस्थान तक बंधनेवाली अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि अन्य प्रकृतियों को भी लेकर पच्चीस प्रकृतियों के बन्ध को मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दष्टि इन दो गुणस्थानों में दिखलाकर आगे उनके बन्ध का निषेध कर दिया गया है। सूत्र ३,७-८
क० का० में उन पच्चीस प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति क्रमप्राप्त आगे के दूसरे गुणस्थान में निर्दिष्ट की गई है । इससे प्रथम दोनों गुणस्थानवी जीव उन पच्चीस प्रकृतियों के बन्धक हैं, यह स्वयंसिद्ध हो जाता है (गाथा ६६)।
९. ५० ख० के इसी बन्धस्वामित्वविचय खण्ड में पूर्वोक्त पाँचवें पृच्छासूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उसे देशामर्शकसूत्र बतलाकर उससे सूचित इन अन्य २३ पृच्छाओं को उसके अन्तर्गत निर्दिष्ट किया है-- (१) क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (२) क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (३) क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, (४) क्या उनका बन्ध अपने उदय के साथ होता है, (५) क्या पर के उदय के साथ होता है, (६) क्या अपने और पर के उदय के साथ वह होता है, (७) क्या बन्ध सान्तर होता है, (८) क्या निरन्तर होता है, (E) क्या सान्तर-निरन्तर होता है, (१०) क्या बन्ध सनिमित्तक होता है, (११) क्या अनिमित्तक होता है, (१२) क्या गतिसंयुक्त बन्ध होता है, (१३) क्या गतिसंयोग से रहित होता है, (१४) कितनी गतियों के जीव उनके बन्ध के स्वामी हैं, (१५) कितनी गतियों के जीव उनके बन्ध के स्वामी नहीं हैं, (१६) बन्धाध्वान कितना है, (१७) क्या बन्ध चरम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१८) क्या वह प्रथम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१६) क्या अप्रथमअचरम समय में व्युच्छिन्न होता है (२०) क्या उनका बन्ध सादि है, (२१) क्या अनादि है, (२२) क्या उनका बन्ध ध्रुव है, (२३) और क्या वह अध्र व होता है। इस प्रकार धवला में यथा प्रसंग इन २३ प्रश्नों का समाधान भी किया गया है।'
क० का० में चौथा 'त्रिचूलिका' अधिकार है। ऊपर प० ख० की धवला टीका में जिन २३ प्रश्नों को उठाया गया है उनमें प्रारम्भ के नौ प्रश्नों को क० का० के इस अधिकार में उठाया है तथा उनका उसी क्रम से समाधान भी किया गया है (गाथा ३९८-४०७)।
क० का० का यह विवेचन उपर्युक्त धवला के उस प्रसंग से प्रभावित होना चाहिए। विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ सूत्रनिर्दिष्ट ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के क्रमानुसार उन नौ प्रश्नों का समाधान किया गया है वहाँ क०का० में एक साथ बन्धयोग्य समस्त १२० प्रकृतियों को लेकर उन नौ प्रश्नों का समाधान कर दिया गया है । तद्विषयक अभिप्राय में दोनों ग्रन्थों में कुछ भिन्नता नहीं रही है।
१०. धवला में उठाये गये उपर्युक्त २३ प्रश्नों में से १०वाँ व ११वाँ ये दो बन्धप्रत्यय
१. धवला पु० ८, पृ० ७-८ व १३-३०
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३२९
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