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(२) इसके पूर्व गतिमार्गणा में सामान्य से देवों के क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए उनका क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। (सूत्र २,६,१५-१६)
आगे भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक देवों के क्षेत्र प्रमाण को सामान्य से देवगति (सूत्र २,६,१५-१६) के समान कह दिया गया है। (सूत्र २,६,१७)
इस प्रकार ष० ख० में मार्गणाक्रम से जो उस क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है वह प्रज्ञापना की अपेक्षा कितनी क्रमबद्ध, सुगठित, संक्षिप्त और विषय विवेचन की दृष्टि से परिपूर्ण है। यह उपर्युक्त दो उदाहरणों से भलीभाँति समझा जा सकता है।
६. प्रज्ञापना में मंगल के पश्चात् जो दो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं वे प्रक्षिप्त हैं । उनकी व्याख्या हरिभद्र सूरि और मलयगिरि सूरि ने की तो है, पर उन्हें प्रक्षिप्त मानकर ही वह व्याख्या उनके द्वारा की गई है । इन गाथाओं में भगवान् आर्यश्याम को नमस्कार किया गया है जिन्होंने श्रुत-सागर से चुनकर शिष्यगण के लिए उत्तम श्रुत-रत्न दिया है। उनमें से पूर्व की गाथा में उन मुनि आर्यश्याम को वाचक वंश से तेईसवीं पीढ़ी का धीर पुरुष निर्दिष्ट किया गया है। ___इन प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार पर श्यामार्य को प्रज्ञापना का कर्ता माना जाता है। पर मूल ग्रन्थ में कर्ता के रूप में कहीं श्यामार्य का उल्लेख नहीं किया गया है। उन गाथाओं में भी उनके द्वारा उत्तम श्रुत-रत्न के दिये जाने मात्र की सूचना की गई है । पर वह श्रुत-रत्न प्रस्तुत प्रज्ञापना उपांग था, इसे तो वहाँ स्पष्ट नहीं किया गया है--सम्भव है वह दूसरा ही कोई उत्तम ग्रन्थ रहा हो। इस परिस्थिति में प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार से भी श्यामार्य को प्रज्ञापना का कर्ता कैसे माना जाय, यह विचारणीय है। हरिभद्र सूरि के द्वारा यदि उन गाथाओं की व्याख्या की गई है तो उससे इतना मात्र सिद्ध होता है कि श्यामार्य हरिभद्र सूरि के समय (८वीं शती) में प्रसिद्ध हो चुके थे, पर वे प्रज्ञापना के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध थे, यह सिद्ध नहीं होता।
उन गाथाओं में श्यामार्य को वाचकवंश की तेईसवीं पीढ़ी का जो कहा गया है उसके विषय में यह भी ज्ञातव्य है कि वाचकवंश कब से प्रारम्भ हुआ और उसकी तेईसवी पीढ़ी कब पड़ी।
इसके विपरीत नन्दिसूत्र की स्थ विरावली में श्यामार्य को हारितगोत्रीय कहा गया है ।' यह परस्पर विरोध क्यों ?
७. प्रज्ञापना की प्राचीनता को सिद्ध करते हुए कहा गया है कि पट्टावलियों में तीन कालकाचार्यों का उल्लेख है। उनमें धर्मसागरीय पट्टावलि के अनुसार एक कालक की मृत्यु वीरनिर्वाण सं० ३७६ में हुई । खरतरगच्छीय पट्टावलि के अनुसार वी रनिर्वाण सं० ३७६ में
१. वायगवरवंसाओ तेवीस इएण धीरपुरिसेण ।
दुद्धरधरेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ।। सुय-सागरा विणेऊण सुय-रयणमुत्तमं दिन्न ।
सीसगणस्स भगवओ तस्स नमो अज्जसामस्स ।। -पक्खित्तं गाहाजुयलं । २. हारियगोत्तं साईच वंदिमो हारियं च सामजं । —नन्दिसूत्र गाथा २६ पू० :
२५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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