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किया गया है । यथा-
मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इदरो अयुव्व अणियट्टि सुमो य ॥ - गा०६
वसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी व ।
चउदह जीवसमासा कमेण सिद्धा य णायव्वा' ॥ - गा० १०
५. जी० का० के इस जीवसमास अधिकार में संक्षेप से शरीर की अवगाहना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है ( गा० ६७-१०१) ।
ष० ख० में चतुर्थ वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना नामक अनुयोगद्वार में जो १६ अवान्तर अनुयोगद्वार हैं उनमें पाँचवाँ 'वेदनाक्षेत्रविधान' है । उसमें प्रसंगवश सब जीवों में शरीरावगाहनाविषयक अल्पबहुत्व की विस्तार से प्ररूपणा हुई है ।
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सम्भवतः ष० ख० के इसी अवगाहनामहादण्डक के आधार से जो० का० में उपर्युक्त श्रवगाहनाविकल्पों की प्ररूपणा हुई है ।
६. जी० का ० के इसी 'जीवसमास' अधिकार में कुलों की भी प्ररूपणा की गई है ।
( ११३-१६)
० ख० में यद्यपि कुलों की प्ररूपणा नहीं है, पर मूलाचार में उनकी विवेचना की गई है । मूलाचार में की गई उस विवेचना से सम्बद्ध गाथा ५- २४ तथा गाथा ५-२६ ये दो गाथाएँ जी० का० में ११३-१४ गाथा संख्या में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती हैं। मूलाचार में उन दो गाथाओं के मध्य में जो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और हरितकाय जीवों के कुलों की निर्देशक २५वीं गाथा है वह जी० का० में नहीं उपलब्ध होती । वहाँ मूलाचार की इस गाथा में निर्दिष्ट द्वीन्द्रिय आदि जीवों के कुलों की संख्या का उल्लेख भी अन्य किसी गाथा में नहीं है ।
आगे मूलाचार (५-२७) में क्रम से देवों, नारकियों और मनुष्यों के कुलों की संख्या छब्बीस, पच्चीस और चौदह कुलकोटिशतसहस्र निर्दिष्ट की गई है । कुलों की संख्या का यह उल्लेख जी० का ० ( ११५) में भी किया गया है । पर वहाँ विशेषता यह रही है कि मूलाचार में जहाँ मनुष्यों के कुलों की संख्या चौदह कुल कोटिशतसहस्र निर्दिष्ट की गई है वहाँ जी० का० में उनकी वह संख्या बारह कुलकोटिशतसहस्र है ।
अन्त में मूलाचार में जो समस्त कुलों की सम्मिलित संख्या निर्देश किया है वह उन सबके जोड़ने पर ठीक बैठता है (५-२८), पर जी० का० (११६) में निर्दिष्ट समस्त कुल
१. श्वे० संस्था रतलाम से प्रकाशित 'जीवसमास' में भी दो गाथाओं में गुणस्थानों के नामों का उल्लेख किया गया है ( गा० ६-१० ) । वहाँ दूसरी गाथा के चतुर्थ चरण में इस प्रकार का पाठ भेद है- कमेण एएऽणुगंतव्वा ।
२. ष० ख० पु० ११, सूत्र ३०-६६ ( पृ० ५६-७०) ।
३. मूलाचार में आगे 'पर्याप्ति' अधिकार ( १२ ) में उन कुलों की संख्या उन्हीं गाथाओं में फिर से भी निर्दिष्ट की गई है ( १६६-६६ ) । विशेषता यह है कि वहाँ उनकी सम्मिलित संख्या का उल्लेख नहीं किया है । (कुलों की यह प्ररूपणा जीवसमास (४०-४४ ) में भी ( शेष पृष्ठ ३०५ पर देखिए)
३०४ / षट्खण्डागम - परिशीलन
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