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उन्होंने अपने समक्ष उपस्थित समस्त आगमसाहित्य - जैसे षट्खण्डागम व कषायप्राभूत आदि का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था । उसका उपयोग उन्होंने प्रकृत गोम्मटसार की रचना में पर्याप्त रूप में किया है। इससे उनकी यह कृति निःसन्देह अतिशय लोकप्रिय हुई है ।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, कषायप्राभृत व षट्खण्डागम आदि में जो गाथासूत्र रहे हैं तथा ष० ख० की टीका धवला आदि में यथा प्रसंग विवक्षित विषय की पुष्टि के लिए अथवा उसे विशद व विकसित करने के लिए जो ग्रन्थान्तरों से ग्रन्थनामोल्लेखपूर्वक अथवा 'उक्तं च' आदि का निर्देश करते हुए गाथाएँ ली गई हैं, जीवकाण्ड में उन्हें बड़ी कुशलता से उसी रूप में ग्रन्थका अंग बना लिया गया है । ऐसी गाथाओं को ग्रन्थ में समाविष्ट करते हुए ग्रन्थ के नाम आदि का कोई संकेत नहीं किया गया है । ऐसी गाथानों की यहाँ सूची दी जा रही है। जैसा कि पीछे स्पष्ट किया जा चुका है उनमें अधिकांश गाथाएँ दि० पचसंग्रह में भी उपलब्ध होती हैं ।
क्रम संख्या
१.
२.
३.
४.
५.
७.
८.
ε.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१५.
१६.
२०.
गाथांश
अट्ठत्तीसद्धलवा अविकम्मविजुदा वह
अणु लोहं वेदो
अत्थादो अत्यंतर
अत्थि अणता जीवा
२१.
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17
अप्प - परोभयवाधण
अभिहणियमियबोहण अदिति ओ
असहायणाण- दंसण
भीमासुरक्खा
आवलि असंखसमया
आहरदि अणेण मुणी
आहारयमुत्तत्थं उवसंते खीणे वा
एइंदियस्स फुसणं
एक्कम्हि काल - समए
हि गुणा एयणिगोदसरीरे एयणिगोदसरीरे
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एदवियम्मि जे
३२० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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पु०
३
१
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१४
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धवला
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१
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१४
१
१०
६६
२००
For Private & Personal Use Only
६६
३७३
३५६
२७१
२३३
३५१
३५६
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१६२
३६८
६५
२६४
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३७३
२५८
१८६
१८३
२७०
३६४
२३४
३६६
जीवकाण्ड पंचसंग्रह
गाथा
गाया
५७४
६८
६२८
४७३
३१४
१६६
33
२८८
३०५
३६६
६४
३०३
५७३
२३८
२३६
४७४
१६६
५६
५१
१६४
11
79
५८ १
१-३१
१-१२२
१-८५
33
१-११६
१-१२१
१-१२३
१-२६
१-११६
१-६७
१-६६
१-१३३
१- २०
१-१८
१-८४
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