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प्रन्यान्तर
जी० का० में इस सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में अन्य भी जो जीव-अजीव आदि के विषय में विवेचन किया गया है उसका आधार कषायप्राभूत,' पंचास्तिकाय तथा तरवार्थसूत्र और उसकी व्याख्यास्वरूप सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक आदि हो सकते हैं। जैसेकषायप्राभत में दर्शनमोह की क्षपणा के प्रसंग में यह गाथासूत्र आया है---
दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु ।
णियमा मणसगदीए णिट्ठवगो चावि सम्वत्थ ।।११०॥ यह गाथासूत्र जीवकाण्ड में ६४७ गाथांक में उपलब्ध होता है। विशेषता वहां यह रही है कि "णियमा मणुसगदीए' के स्थान में 'मणुसो केवलिमूले' ऐसा पाठ परिवर्तित कर दिया गया है। ब० ख० में 'जम्हि जिणा केवली तित्थयरा' (सूत्र १.६-८, ११) ऐसा उल्लेख है। तदनसार ही पाठ में वह परिवर्तन किया गया है । यद्यपि उसे धवला (पू०६, पृ०२४५) में भी उद्धृत किया गया है, पर वहां पाठ में कुछ परिवर्तन नहीं किया गया।
(१) पंचास्तिकाय में सामान्य से पुद्गल के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु इन चार भेदों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप- इस गाथा द्वारा प्रकट किया गया है
खधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्ध भणंति देसो त्ति ।
__ अद्धद्धं च पदेसो परमाणु चेव अविभागी।।७।। यह गाथा जी० का० में इसी रूप में उपलब्ध होती है (६०३)।
(२) पंचास्तिकाय में बादर और सूक्ष्मरूपता को प्राप्त स्कन्धों को पुद्गल बतलाते हुए उनके छह भेदों का उल्लेख मात्र किया गया है (७६)।
यद्यपि उस गाथा में उन छह भेदों के नामों का निर्देश नहीं किया गया, फिर भी उसकी व्याख्या में अमृतचन्द्र सूरि और जयसेनाचार्य ने उन भेदों को इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है--- (१) बादर-बादर, (२) बादर, (३) बाद रसूक्ष्म, (४) सूक्ष्मबादर, (५) सूक्ष्म और (६) सूक्ष्म-सूक्ष्म। जी०का० में इन भेदों की प्ररूपक गाथा इस प्रकार उपलब्ध होती है
बादरबावर बादर बादरसहमं च सहमथलं च ।
सुहमं च सुहुमसुहुमं धरादियं होवि छन्भेयं ॥६०२।। (३) पंचास्तिकाय में आगे इसी प्रसंग में जिस प्रकार से धर्मास्तिकायआदिकों के स्वरूप (मूर्तामर्तत्व और सक्रिय-अक्रियत्व) आदि का विचार किया गया है लगभग उसी प्रकार से जी० का० में भी उस सबका विचार हुआ है।'
(४) पंचास्तिकाय में काल द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह गाथा कही गई है
१. कषायप्राभत के १०८ व ११० ये दो गाथासूत्र जी० का० मे यहाँ क्रम से ६५५ (इसके
पूर्व गा० १८ भी) और ६४७ गाथांकों में उपलब्ध होते हैं। २. यह गाथा मूलाचार (५-३४) और ति० प० (१-६५) में भी उसी रूप में उपलब्ध होती
है । जीवसमास में उसका पूर्वार्ध (६४) मात्र उपलब्ध होता है । ३. पं० का० गाथा ८३-६६ और जी० का० गाथा ५६२-६६ और ६०४ आदि ।
११८ षटखण्डागम-परिशीलन
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