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(१८७-६४) को 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किया है वे उसी रूप में व उसी क्रम से जीवकाण्ड में ४६६-७७ गाथांकों में भी उपलब्ध होती हैं।'
विशेषता यह रही है कि ऊपर जीवकाण्ड की जिस 'तीसं वासो जम्म' (४७२) गाथा का उल्लेख है वह धवला में उद्धृत गाथाओं में नहीं है। ___ इस प्रकार अधिक सम्भावना तो यही है कि जीवकाण्ड में संयम की प्ररूपणा धवला के दी आधार से की गई है । 'तीसं वासो जम्मे' आदि गाथा आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा ही रची गई दिखती है, वह पूर्ववर्ती किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ में नहीं पायी जाती।
१७. जीवकाण्ड में लेश्यामार्गणा के प्रसंग में इन १६ अधिकारों के द्वारा लेश्या से सम्बन्धित कुछ प्रासंगिक चर्चा भी है---(१) निर्देश, (२) वर्ण, (३) परिणाम, (४) संक्रम, (५) कर्म, (६) लक्षण, (७) गति, (८) स्वामी, (६) साधन, (१०) संख्या, (११) क्षेत्र, (१२) स्पर्श, (१३) काल, (१४) अन्तर, (१५) भाव और (१६) अल्पबहुत्व ।
ख० में इस प्रकार से कहीं एक स्थान पर लेश्या से सम्बन्धित उन सब विषयों की नहीं की गई है, वहाँ यथाप्रसंग विभिन्न स्थानों पर उसका विचार किया गया है । जैसे-.
यह पर्व में कहा जा चुका है कि वहाँ जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में लेश्यामार्गणा के प्रसंग में लेश्या के छह भेदों का निर्देश करते हुए उनके स्वामियों का भी उल्लेख किया गया है (सूत्र १३६-४०)। वहाँ छह लेश्यावाले जीवों के प्ररूपक सूत्र (१३२) की व्याख्या करते हए धवला में 'उक्तं च' ऐसा निर्देश करके क्रम से उन छह लेश्याओं के लक्षणों की प्ररूपक नौ गाथाओं को तथा आगे अलेश्य जीवों की प्ररूपक एक अन्य गाथा को उद्धृत किया गया है।
जीवकाण्ड में उन गाथाओं को उसी रूप में व उसी क्रम से ग्रन्थ का अंग बना लिया गया है। विशेषता केवल यह रही है कि उन गाथाओं में अलेश्य जीवों की प्ररूपक गाथा को जीवकाण्ड में लेश्यामार्गणा को समाप्त पर लिया गया है।
१८. १० ख० में महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अन्तर्गत कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में जिन निबन्धन आदि अठारह (७-२४) अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा ग्रन्थकर्ता द्वारा नहीं की गई है उनकी प्ररूपणा वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में कर दी है।
उन २४ अनयोगद्वारों में १३वा लेश्या-अनुयोगद्वार, १४वां लेश्याकर्म और १५वां लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार है । इनमें से लेश्या-अनुयोगद्वार में शरीराश्रित द्रव्यलेश्या (शरीरगत वर्ण) की प्ररूपणा करते हुए किन जीवों के कौन-सा वर्ण होता है, इसे स्पष्ट किया गया
१. धवला पु० १, पृ० ३७२-७३ २. जैसा कि पीछे 'ष० ख० व पंचसंग्रह' शीर्षक में संकेत किया गया है, जी० का० में इस
लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा का आधार सम्भवतः 'तत्त्वार्थवार्तिक' का वह प्रसंग
रहा है। ३. धवला पु० १, पृ० ३८८-६०; इन गाथाओं को आगे घवला में १४वें 'लेश्याकर्म' अनुयोग
द्वार में भी उद्धृत किया गया है । पु० १६, पृ० ४६०-६२ (यहाँ मार्गणा का अधिकार
न होने से 'अलेश्य' जीवों से सम्बन्धित गाथा उद्धृत नहीं है) ४. गा० ५०८-१६ व आगे गा० ५५५
३१० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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