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२. प्रदेशबन्ध की चर्चा न करना। ३. योग के कर्मबन्ध का कारण होने का निर्देश न करना । ४. कर्मप्रदेश की चर्चा का अभाव ।
इस विषय में यह पूछा जा सकता है कि प्रज्ञापना में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा में जो यह अव्यवस्था हुई है वह किस कारण से हुई। वहाँ प्रारम्भ में ही दृष्टिवाद से प्रज्ञापना के उद्गम को बतलाते हुए यह प्रतिज्ञा की गई है कि जिनेन्द्रदेव ने यथा दृष्टभावों की प्रज्ञापना का जैसा वर्णन किया है वैसा ही मैं उसका वर्णन करूँगा। तदनुसार प्रज्ञापनाकार के समक्ष साक्षात् दृष्टिवाद के न रहते हुए भी कुछ तो पूर्वपरम्परागत श्रुत उनके पास रहना ही चाहिए, जिसके आधार से उन्होंने उसकी रचना या संकलन किया है। ऐसी अवस्था में वहाँ प्रतिपाद्य विपय की प्ररूपणा में असम्बद्धता, क्रमविहीनता और शिथिलता नहीं रहनी चाहिए थी। मौलिक श्रुत में तो वैसी कुछ कल्पना नहीं की जा सकती है । इसका विचार करते हुए प्रज्ञापना
विषय के प्रतिपादन मे शिथिलता, क्रमविहीनता व अनावश्यक विस्तार हआ है वह उसके प्राचीन स्तर के ग्रन्थ होने का अनुमापक नहीं हो सकता।
उसका कारण तो यही सम्भव है कि वर्तमान मे जो अंगश्रुत उपलब्ध है, प्रज्ञापनाकार उसी की सीमा में बँधे रहे। इससे उन्होंने अपनी स्वतंत्र प्रतिभा के बल पर प्रतिपाद्य विषय का वर्गीकरण न कर नय-निक्षेप आदि के आश्रय से उसका प्रतिपादन नहीं किया। यही कारण है कि वहाँ जहाँ-तहाँ अक्रमबद्धता व अनावश्यक विस्तार देखा जाता है ।
इसके विपरीत षट्खण्डागम के रचयिताओं ने मौलिक श्रुत का लोप होते देख परम्परागत महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का छह खण्डों में उपसंहार कर अपने बुद्धि वैभव से प्रतिपाद्य विषय का वर्गीकरण किया व उसे यथाप्रसंग अनुयोगद्वारों आदि में विभक्त करते हुए गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के क्रम से उसका प्रतिपादन किया है। इससे वह योजनाबद्ध सुगठित रहा है व उसमें क्रमविहीनता व असंगति नहीं हुई है इसे हम इसके पूर्व भी स्पष्ट कर चुके हैं।
इस सब विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहचते हैं कि प्रज्ञापना की रचना तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के पश्चात् और नन्दिसूत्र के पूर्व किसी समय में हुई है।
१०. षट्खण्डागम और अनुयोगद्वारसूत्र ___ श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से 'नन्दिसूत्र' के साथ प्रकाशित 'अनुयोगद्वारसूत्र' के संस्करण में उसे आर्यरक्षित स्थविर द्वारा विरचित सूचित किया गया है। उसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि प्रस्तुत प्रकाशन में जो हमने 'सिरिअज्जरक्खियविर इयाई' यह उल्लेख किया है वह केवल प्रवाद के आधार से किया है। आगे उस प्रवाद को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस प्रवाद में कितना तथ्य है यह जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है । ऐसा कोई प्राचीन उल्लेख भी नहीं है कि जिससे आर्यरक्षित स्थविर को अनुयोगद्वार सूत्र का कर्ता माना जाय । यदि कदाचित् आर्य रक्षित के द्वारा अनुयोगद्वार सूत्र की रचना नहीं की गई है तो यह तो सम्भावना है ही कि उनकी परम्परा के किसी शिष्य-प्रशिष्य ने उसकी रचना की होगी । यह तो निश्चित है कि अनुयोगप्रक्रिया का विशेष ज्ञान आर्य रक्षित को रहा है । यदि अनुयोगद्वार आर्यरक्षित की रचना है तो वि० सं० ११४ से १२७ के मध्य किसी समय वह
२६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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